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आठवाँ अध्ययन]
[219 ___अन्वयार्थ-कण्ण सुक्खेहिं = कर्ण प्रिय-मधुर मनोहर । सद्देहि = शब्दों से योग्य मुनि । पेम्मं = रागभाव । नाभिनिवेसए = प्राप्त नहीं करे तथा इसी तरह । दारुणं = दारुण-भयंकर । कक्कसं = कर्कश-कठोर । फासं = स्पर्श को । काएण = काया से । अहियासए = राग-द्वेष रहित होकर सहन करे।
भावार्थ-जितेन्द्रिय समताधारी मुनि शब्दादि विषयों से विरक्त होता है। सुख दुःख का कारण राग है। इसलिये संयमी के लिये कहा गया है कि वह कर्णप्रिय-मद् मनोहर शब्दों में राग कर उसमें रंगावे नहीं। वैसे ही दारुण-पीडाकारी कठोर स्पर्श को भी हर्षित मन से सहन कर ले । उत्तराध्ययन सत्र के 32वें अध्ययन में कहा है कि
सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेणं ।
न लिप्पइ भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं ।।47।। शब्द के विषय में राग रहित रहने वाला मनुष्य शोक मुक्त होकर संसार में रहते हुए भी इस दु:खपरम्परा में लिप्त नहीं होता। जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल में लिप्त नहीं होता। ऐसे ही अन्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों के लिये भी जानें।
खुहं पिवासं दुस्सिज्जं, सीउण्हं अरइं भयं ।
अहियासे अव्वहिओ, देह दुक्खं महाफलं ।।27।। हिन्दी पद्यानुवाद
भूख प्यास और दुश्शय्या, शीतोष्ण अरति एवं भय को।
उद्वेग रहित हो सहन करे, देता तन का दु:ख शुभ फल को ।। अन्वयार्थ-खुहं = क्षुधा-भूख । पिवासं = पिपासा-प्यास । दुस्सिज्ज = विषम शय्या । सीउण्हं = सर्दी गर्मी-शीत उष्ण। अरडं = अरति और। भयं = सिंह, सर्प आदि के भय को। अव्वहिओ = (अदीन भाव से) साध । अहियासे = सहन करे. दीनता नहीं लावे। देहदक्खं = क्योंकि शरीर के कष्ट को सहन करना । महाफलं = महाफल का कारण है। इससे सहिष्णुता भी बढ़ती है।
भावार्थ-साधु को सहिष्णुता की शिक्षा देते हुए कहा गया है कि भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, विषम शय्या, और अरति तथा सप्त विध भयों को मुनि बिना व्यथा के अदीन भाव से सहन करे, क्योंकि शरीर के दु:ख को सहन करना महालाभ का कारण है, यानी मोक्ष का कारण है। वास्तव में साधु “पुढवीसमे मुणी हविज्जा” पृथ्वी के समान समभाव से सुख-दु:ख को सहने वाला होता है।
अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए। आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ।।28।।