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आठवाँ अध्ययन
न य भोयणम्मि गिद्धो, चरे उंछं अयंपिरो ।
अफासुयं न भुंजिज्जा, कीयमुद्देसियमाहडं ।।23।। हिन्दी पद्यानुवाद
अनासक्त कुल उच्च छोड़, श्लाघा निंदा से ना लाये।
औद्देशिक क्रीत तथा आहृत, अप्रासुक भोजन ना खाये ।। अन्वयार्थ-भोयणम्मि = भोजन में । गिद्धो = गृद्ध होकर । उंछं न य = उच्चकुलों में नहीं । चरे = जावे । अयंपिरो = दाता की श्लाघा वा निन्दा नहीं करता हुआ सामूहिक भिक्षा हेतु जावे । अफासुयं = अप्रासुक सचित्त । कीयं = खरीद कर लाया हुआ। उद्देसियं = साधु के उद्देश्य से बनाया गया। आहडं = और सामने लाया हुआ, भूल से आ भी जाय तो भी ऐसा आहार मुनि । न भुजिज्जा = न ले तथा न उसका सेवन करे।
भावार्थ-भोजन में गृद्ध होकर साधु साधारण घरों को छोड़कर सम्पन्न-ऊँचे घरों में नहीं जावे, किन्तु बिना बोले थोड़ा-थोड़ा अनेक घरों से भिक्षा की गवेषणा करे । अप्रासुक-सचित्तादि और साधु को देने के लिये खरीदकर लाया हुआ, औद्देशिक-साधु के निमित्त बनाया हुआ तथा सामने लाया हुआ अन्नादि ग्रहण नहीं करे। कभी अज्ञात दशा में या अनजान में आ भी जाय और लेने के बाद पता चल जाय तो उसका उपयोग नहीं करे। विधिपूर्वक उसे अन्यत्र परठ दे।
सन्निहिं च न कुव्विज्जा, अणुमायं पि संजए।
मुहाजीवी असंबद्धे, हविज्ज जगनिस्सिए ।।24।। हिन्दी पद्यानुवाद
अणु भर भी संनिधि करे नहीं, संयत इस धरती पर आकर ।
निर्लिप्त सकल प्राणी पालक, या रहे मुधाजीवी बनकर ।। अन्वयार्थ-च = और । संजए = संयमी साधु । अणुमायं पि = अणुमात्र भी। सन्निहिं = घी, तेल, गुड़ आदि का संग्रह-रातबासी । न कुव्विज्जा = नहीं करे क्योंकि वह । मुहाजीवी = आहार के बदले गृहस्थ के प्रति सेवा या धन से रहित जीवन वाला। असंबद्धे = आहार या किसी घर से अलिप्त अथवा गृहस्थों के प्रतिबन्ध से मुक्त । जग = सामान्य रूप से जन साधारण के। निस्सिए = निश्रित । हविज्ज (होज्ज) = होता है।
भावार्थ-भविष्य काल की चिन्ता से मुनि अणुमात्र अर्थात् अल्प मात्र घी, तेल, गुड़, भोजन आदि का भी संग्रह नहीं करे । रात को बासी भी नहीं रखे। साधु बिना किसी सेवा-विद्या आदि के बदले जीने वाले, घर