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आठवाँ अध्ययन]
[231 अर्थ-लोच, अस्नान आदि व्यवहार, प्रज्ञप्ति का अर्थ समझाना और दृष्टिवाद का अर्थ श्रोताओं की अपेक्षा जीवादि के सूक्ष्म अर्थ का प्रतिपादन किया है। यहाँ पर व्यवहार भाष्य का एक उदाहरण द्रष्टव्य है
___ एक क्षुल्लकाचार्य प्रज्ञप्ति कुशल थे। एक दिन भुरुण्ड राज ने उनसे पूछा-“भगवन् ! देवता गत काल को कैसे नहीं जानते, इसको स्पष्ट समझाइये?" राजा के प्रश्न पर आचार्य एकदम खड़े हो गये। आचार्य को खड़ा होते देखकर राजा भी तत्काल खड़ा हो गया। आचार्य क्षीरासव लब्धिवान् थे। उन्होंने उपदेश प्रारम्भ किया। उनकी वाणी में दूध की मिठास टपक रही थी। एक प्रहर बीत गया । आचार्य ने पूछा“राजन् ! तुम्हें खड़े हुए कितना समय हुआ है ?" राजा ने उत्तर दिया-“भगवन् ! अभी-अभी खड़ा हुआ हूँ।” आचार्य ने कहा-“एक प्रहर बीत चुका है, तुम उपदेश की वाणी में आनन्द मग्न होकर जैसे गतकाल को नहीं जान सके, वैसे ही देवता भी गीत और वाद्य के श्रवण में आनन्द-विभोर होकर गतकाल को नहीं जानते।" राजा निरुत्तर था। (व्यवहार भाष्य 4/3 से)।
नक्खत्तं सुमिणं जोगं, णिमित्तं, मंतभेसजं ।
गिहिणो तं न आइक्खे, भूयाहिगरणं पयं ।।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
नक्षत्र स्वप्न फल और योग, एवं निमित्त विद्या औषध ।
मुनि कहे गृहस्थों को न इन्हें, कारण ये जीव विनाशक पद ।। अन्वयार्थ-नक्खत्तं = ग्रह नक्षत्र । सुमिणं = शुभाशुभ-स्वप्न । जोगं = वशीकरणादि योग । णिमित्तं = भूमि कंप आदि अष्टांग निमित्त । मंत = मन्त्र और । भेसजं = अतिसार आदि की औषधि । तं = ये सब । भूयाहिगरणं = प्राणि-हिंसा के। पयं = स्थान हैं। इनका मुनि । गिहिणो = गृहस्थों को। न आइक्खे = कथन नहीं करे।
भावार्थ-साधु संसार के आरम्भ-परिग्रह का त्यागी होने से त्याग-विराग का उपदेश करता है। गृहस्थ के घरेलू प्रपंचों से दूर रहने के कारण वह गृहस्थ से मन्त्र, तन्त्र और ज्योतिष आदि की बात नहीं करता। अत: वह आकाश के ग्रह गोचर, शुभाशुभ स्वप्न के फल, वशीकरणादि योग, भूत-भविष्य के निमित्त, मन्त्र-विद्या और औषध-भैषज्य की बात नहीं करे, क्योंकि इनको जानकर गृहस्थ आरम्भ करेगा जो त्रस स्थावर जीवों की हिंसा का कारण होगा। अत: साधु के लिये ये निषिद्ध कहे गये हैं।
अण्णट्ठ पगडं लयणं, भइज्ज सयणासणं । उच्चार-भूमि संपण्णं, इत्थीपसुविवज्जियं ।।52।।