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[दशवैकालिक सूत्र तथा आहार से अलिप्त, एवं अन्न-पानादि के लिये मुनि जन साधारण के आश्रित होता है। स्थानांग सूत्र के अनुसार-छह काय, गण, राजा, गृहपति और शरीर, इन पाँच की निश्रा में साधु के संयम की साधना होती है।
लूहवित्ती सुसंतुट्टे, अप्पिच्छे सुहरे सिया।
आसुरत्तं न गच्छिज्जा, सुच्चा णं जिणसासणं ।।25।। हिन्दी पद्यानुवाद
नीरस खाकर जीने वाला, सन्तुष्ट सुतप्त अल्पकामी।
जिनशासन की महिमा सुनकर, ना करे क्रोध मुनि सुज्ञानी ।। अन्वयार्थ-लूहवित्ती = रूक्ष द्रव्यों से जीविका चलाने वाला साधु । सुसंतुट्टे = प्राप्त निर्दोष आहार में सन्तुष्ट रहने वाला। अप्पिच्छे = अल्प इच्छा वाला। सुहरे = सरलता से तृप्त होने वाला, जिसको तृप्त करना कठिन नहीं होता। सिया = हो और । जिणसासणं = जिन शासन को । सुच्चा णं = सुनकर । आसुरत्तं = क्रोध । न गच्छिज्जा = नहीं करने वाला हो।
भावार्थ-अच्छा साधु रूक्ष द्रव्यों से जीवन चलाने वाला, यथा लाभ सन्तुष्ट, अल्प इच्छा वाला होने से जिसको तृप्त करना सरल होता है, वह प्रतिकूल प्रसंग में भी जिनशासन के उपशम प्रधान वचनों को सनकर क्रोध भाव को प्राप्त नहीं होता। जिनशासन में क्रोध को नारकीय कर्मबन्ध का प्रमुख कारण कहा है। क्रोध का निमित्त पाकर भी क्रोध नहीं करना, इसके लिये ज्ञान का आलम्बन लेना चाहिये । जैसे कहा है
अक्कोसहणणमारण-धम्मभंसाण बालसुलभाण।
लाभं मन्नति धीरो, जहुत्तराणं अभावंमि ।। अज्ञानियों के लिये साधु को क्रोध में गाली देना, मारना-पीटना और धर्मभ्रष्ट करना सुलभ है । साधु को कोई गाली दे, तो साधु सोचे कि यह गाली ही देता है, चलो पीटता तो नहीं । यदि कोई पीटे, तो साधु सोचे कि पीटा ही है, मारा तो नहीं है। मारने पर सोचे कि चलो इसने मेरा धर्म तो नहीं लूटा । इस प्रकार साधु ज्ञानभाव से क्रोध का शमन करे । विशेष विवरण उत्तराध्ययन-सूत्र के दूसरे अध्ययन के आक्रोश-वध परीषह के प्रसंग में देखें।
कण्णसुक्खेहिं सद्देहिं, पेमं नाभिनिवेसए।
दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहियासए ।।26।। हिन्दी पद्यानुवाद
कानों के सुखकर शब्दों में, मुनि राग नहीं उत्पन्न करे । दारुण कठोर-प्रतिकूल स्पर्श, निज तन से मुनिजन सहन करे ।।