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[दशवैकालिक सूत्र वाला । जिइंदिए = जितेन्द्रिय मुनि । वियडभावे = शुद्ध हृदय से गुरु के समक्ष अपना धर्म विरुद्ध कार्य प्रकट कर दे। असंसत्ते = दोष का संसर्ग नहीं रखे।
__ भावार्थ-नहीं चाहते हुए भी कभी साधु से धर्म विरुद्ध अनाचार का सेवन हो जाय तो उसे ऊँचानीचा कहकर छिपाने की चेष्टा नहीं करे और चूक (भूल) को अस्वीकार भी नहीं करे। किन्तु जैसा हो वैसा गुरु के समक्ष बालक की तरह सरल भाव से दोष की आलोचना कर गुरुदत्त प्रायश्चित्त से अपनी आत्मा को शुद्ध करले । क्योंकि सरल मन से दोष की आलोचना करने वाला ही आराधक होता है।
अमोहं वयणं कुज्जा, आयरियस्स महप्पणो।
तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ।।33।। हिन्दी पद्यानुवाद
पूजनीय आचार्य वचन को, सफल बनाये शिष्य सदा।
तहत्ति कर ग्रहण करे उसको, कार्यों में पालन करे सदा ।। अन्वयार्थ-आयरियस्स = आचार्य । महप्पणो = महाराज के । वयणं = वचन को । अमोह = व्यर्थ न । कुज्जा = जाने दे । तं = उस आज्ञा को । परिगिज्झ वायाए = वचन से तहत्ति बोलकर स्वीकार करे । कम्मुणा = और क्रियात्मक रूप में । उववायए = उसे परिणत करे । गुरु आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करे।
भावार्थ-विनीत शिष्य संयमनिष्ठ आचार्य महाराज की आज्ञा को व्यर्थ नहीं जाने दे। आज्ञा को 'तथास्तु' ऐसा आदर सूचक वचन कहकर स्वीकार करे और जैसा करने को कहा है, उसी प्रकार उसे क्रिया में उतारे-वैसा ही आचरण करे । गुरु वचनों के यथार्थ पालन से आचार में तेजस्विता आती है।
अधुवं जीवियं णच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया।
विणियट्टिज्ज भोएसु, आउं परिमियमप्पणो ।।34।। हिन्दी पद्यानुवाद
जान विनश्वर जीवन मुनि, और मोक्ष मार्ग का निश्चय कर।
परिमित अपनी आयु को जान, जीए मुनि भोग विरत बन कर ।। अन्वयार्थ-अप्पणो = अपने । जीवियं = जीवन को । अधुवं = नश्वर-अस्थायी और । आउं = आयुकाल को । परिमियं = परिमित । णच्चा = जानकर, समझकर । सिद्धिमग्गं = ज्ञान-क्रियात्मक मोक्ष-मार्ग का । वियाणिया = सम्यग् परिज्ञान करके । भोएसु = मुमुक्षु भोगों से । विणियट्टिज्ज = निवृत्ति
करे।