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[दशवैकालिक सूत्र
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चक्षु आदि इन्द्रियाँ जब तक । न हायंति = क्षीण नहीं होतीं । ताव = तब तक । धम्मं = सम्यग् श्रुतचारित्र रूप धर्म का । समायरे = आचरण कर लेना चाहिये ।
भावार्थ- जब तक वृद्धावस्था शरीर को बलहीन नहीं कर देती और विविध प्रकार की व्याधियाँ जो तन में दबी पड़ी हैं, वे जब तक फैल नहीं जातीं और श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ जब तक क्षीण नहीं होतीं, तब तक धर्म की आराधना हो सकती है। जब शरीर शिथिल हो जाएगा और इन्द्रियाँ काम करने में सक्षम नहीं रहेंगी, तब इच्छा होते हुए भी सेवा-भक्ति और व्रत रूप धर्म की आराधना नहीं कर सकोगे ।
हिन्दी पद्यानुवाद
कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं । मे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ।। 37 ।।
क्रोध मान माया एवं, है लोभ पापवर्द्धक जग में । जो चाहते हैं अपने हित को, ये चार दोष तज दें भव में ।।
अन्वयार्थ-अप्पणो = अपना । हियं = हित । इच्छंतो = चाहने वाले को । पाववड्ढणं = पाप की वृद्धि करने वाले । कोहं च = क्रोध और । माणं च = मान और । मायं च = माया व । लोभं = लोभ । चत्तारि दोसे उ = इन चार दोषों का अवश्य । वमे = त्याग कर देना चाहिये ।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-जिसको अपना हित साधन करना है, उसके लिये आवश्यक है कि सब पापों के मूल, क्रोध, मान-अहंकार, कपट और लोभ-लालच इन चार दोषों का, जिनको कषाय कहते हैं, परित्याग कर दे । कषाय, जन्म-मरण को बढ़ाने वाले हैं तथा मन-मस्तक को तपाने वाले हैं। अनशन आदि बाह्य तपस्या के साथ क्रोध आदि कषायों का उपशम किया जाय तो महालाभ का कारण हो सकता है।
कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयणासणो ।
माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सव्वविणासणो ।।38 ।।
क्रोध प्रीति का नाशक है, और मान विनय का है नाशक । मित्रता की माया नाशक है, और लोभ सभी का है नाशक ।।
अन्वयार्थ- कोहो = क्रोध । पीइं पणासेइ = प्रीति को नष्ट करता | माणो = मान। विणयणासणो = विनय गुण को नष्ट करने वाला है। माया = माया-कपट । मित्ताणि = मित्रता को । णासेइ = समाप्त करती है और । लोभो = लोभ । सव्व = सब सद्गुणों का। विणासणो = नाश करने वाला है ।