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आठवाँ अध्ययन]
[207 भावार्थ-अहिंसक साध को इन सब जीवों के प्रति मन, वचन और काय द्वारा सदा अहिंसक भाव से रहना है, छोटे से छोटे जीव की भी हिंसा नहीं करनी है, उन्हें कष्ट नहीं देना है। ऐसा पूर्ण अहिंसक ही संयत होता है। साधु किसी भी प्रकार के जीव की हिंसा नहीं करता।
पुढविं भित्तिं सिलं लेखें, नेव भिंदे न संलिहे।
तिविहेण करणजोएण, संजए सुसमाहिए ।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद
त्रिकरण तथा त्रियोगों से, पृथ्वी भित्तादि शिला पत्थर ।
ढेले को भेदे लिखे नहीं, संयत शीलाराधन तत्पर ।। अन्वयार्थ-सुसमाहिए = उत्तम समाधि वाला । संजए = साधु । तिविहेण = तीन प्रकार से। करण = करना, कराना, अनुमोदन और । जोएण = तीन योग-मन, वचन और काया से । पुढविं = पृथ्वी। भित्तिं सिलं लेखें = भींत की दरार, शिला, तथा ढेले को । नेव भिंदे = भेदन नहीं करे, और । न संलिहे = उन पर रेखा नहीं खींचे।
भावार्थ-समाधिवन्त साधु, कृत, कारित, अनुमोदन से और मन, वचन, काया के योग से पृथ्वी, भित्ति, शिला, ढेला, मुरड का कंकर आदि विविध सचित्त पृथ्वी का भेदन नहीं करे, और उन पर रेखा नहीं खींचे, खोदने, तोड़ने आदि क्रियाओं से पृथ्वीकाय की विराधना नहीं करे।
सुद्ध पुढवीए, न निसीए, ससरक्खम्मि य आसणे।
पमज्जित्तु, निसीइज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं ।।5।। हिन्दी पद्यानुवाद
न बैठे शुद्ध धरा ऊपर, ना रजयुत आसन के ऊपर ।
परिमार्जन कर बैठे उस पर, भूमिपति की अनुमति लेकर ।। अन्वयार्थ-सुद्ध पुढवीए = शुद्ध पृथ्वी, जो सचित्त है, उस पर । य = और । ससरक्खम्मि = सचित्त रज से संस्पृष्ट । आसणे = पाट आदि आसन पर । न निसीए (निसिए) = नहीं बैठे । पमज्जित्तु = अचित्त पृथ्वी पर बैठना हो तो प्रमार्जन करके । जस्स = जिसके निश्राय में हो उसकी । उग्गहं = अनुमति । जाइत्ता = लेकर । निसीइज्जा (निसीएज्जा) = बैठे।
भावार्थ-अपने शरीर की गर्मी से पृथ्वी के जीवों की विराधना न हो, इसलिये मुनि शुद्ध सचित्त पृथ्वी पर नहीं बैठे । फिर सचित्त रज से भरे-पाट आदि आसन पर भी नहीं बैठे। अचित्त भूमि पर भी बैठना हो तो वहाँ भी प्रमार्जन करके जिसके स्वामित्व में वह भूमि हो उसकी अनुमति प्राप्त करके यतना से बैठे।