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आठवाँ अध्ययन]
7.
[213 हरित सूक्ष्म-तत्काल उत्पन्न, पृथ्वी के समान वर्ण वाला अंकुर, यह भी सहज दृष्टिगम्य नहीं होता। अंड सूक्ष्म-पाँच प्रकार का है-मधुमक्खी 1, कीड़ी 2, मकड़ी 3, ब्राह्मणी 4 और गिरगिट के अण्डे 51
8.
एवमेयाणि जाणित्ता, सव्वभावेण संजए।
अप्पमत्तो जए णिच्चं, सव्विंदिय समाहिए।।16।। हिन्दी पद्यानुवाद
सर्वभाव से संयत मुनि, ऐसे ही इन्हें जान करके ।
अप्रमत्त हो करें यत्न, सर्वदा स्व-इन्द्रिय वश करके ।। अन्वयार्थ-एवमेयाणि = इस प्रकार इन आठ प्रकार के सूक्ष्मों को । सव्वभावेण = सब प्रकार से । जाणित्ता = जानकर । सव्विंदिय = सब इन्द्रियों के । समाहिए = संयमवाला । संजए = संयतिसाधु । णिच्चं = सदा। अप्पमत्तो = अप्रमत्त यानी प्रमाद रहित होकर । जए = जीव रक्षा में यत्न करे ।
भावार्थ-संयमशील साधु इस प्रकार इन आठों सूक्ष्म जीवों को लिंग, जाति, स्वभाव आदि सब प्रकार से जानकर इन्द्रियों के शब्दादि विषयों से विरक्त एवं प्रमाद रहित होकर इन जीवों की यतना में सदा प्रयत्नशील रहे, सावधान रहे।
धुवं च पडिलेहिज्जा, जोगसा पायकंबलं ।
सिज्जमुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवासणं ।।17।। हिन्दी पद्यानुवाद
यथासमय प्रतिलेखन करना, कम्बल पात्र अन्यून अतिरिक्त ।
उच्चार भूमि शय्या आसन, संस्तारक का हो योग सहित ।। अन्वयार्थ-पायकंबलं = पात्र, वस्त्र और कम्बल का । च = और । सिज्जं = शय्या-उपाश्रय का । उच्चारभूमिं = मल-मूत्रादि त्यागने की भूमि का । च = और । संथारं = संस्तारक भूमि बैठने के स्थान का । अदुव = अथवा । आसणं = आसन का मुनि । धुवं = नित्य यथा समय । जोगसा = प्रमाणोपेत अर्थात् विधि पूर्वक । पडिलेहिज्जा = प्रतिलेखन करे, अवलोकन करे।
__ भावार्थ-जीव रक्षा के लिये साधु अपने पास की वस्तुओं का नित्य अवलोकन प्रतिलेखन करता है, जो इस प्रकार है-तीन प्रकार के काष्ठ, तुम्ब और मृणमय (मिट्टी) के पात्र, वस्त्र-कम्बल, उपाश्रय-रहने का