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[दशवैकालिक सूत्र स्थान, मल-मूत्रादि त्यागने के स्थान तथा संथार-पाट आदि, आसन । मुनि उन्हें प्रतिदिन दोनों समय प्रमाणोपेत-हीनाधिकता रहित विधिपूर्वक देखे तथा इनका प्रमार्जन करे। (इनके प्रतिलेखन अवलोकन अथवा प्रमार्जन करने की विस्तृत विधि उत्तराध्ययन सूत्र के 26वें अध्ययन में बताई गई है।)
उच्चारं पासवणं खेलं, सिंघाणजल्लियं ।
फासुयं पडिलेहित्ता, परिठ्ठाविज्ज संजए ।।18।। हिन्दी पद्यानुवाद
मल मूत्र नाक के मल अथवा, कफ का संयत मुनि त्याग करे।
प्रासुक प्रदेश को देख-देख, परिष्ठापन का ध्यान धरे ।। अन्वयार्थ-फासुयं = जीव रहित अचित्त भूमि को । पडिलेहित्ता = देखकर । संजए = संयमी साधु । उच्चारं = उच्चार-मल । पासवणं = लघुनीति । खेलं = कफ। सिंघाण = सिंघान-नाक का मल । जल्लियं = शरीर के मल-मेल आदि को । परिट्ठाविज्ज = अचित्त भूमि देखकर विधिपूर्वक परठेउत्सर्ग करे।
भावार्थ-शरीर के मल को गिराने के लिये संयमी साधु को कहा गया है कि उसको वह जहाँ-तहाँ नहीं गिराए । उसके लिये उत्तराध्ययन के 24वें अध्ययन में विस्तार से कहा गया है। खासकर ऐसी जन्तु रहित भूमि पर जहाँ उत्सर्ग करने में किसी को पीड़ा न हो, मलादि उत्सर्ग का कथन किया गया है । मल, मूत्र, कफ, नासिका का मल, शरीर का मल, नख-केश आदि जो भी त्यागने योग्य पदार्थ हैं, उनको निर्जीव भूमि देखकर साधु यत्न से परिष्ठापन करे, गिराये ।
पविसित्तु परागारं, पाणट्ठा भोयणस्स वा ।
जयं चिट्टे मियं भासे, न य रूवेसु मणं करे ।।19।। हिन्दी पद्यानुवाद
पान और भोजन कारण, करके प्रवेश संयत गृही-घर।
यतना से रुके अल्प बोले, मन दे न किसी वस्तु ऊपर ।। अन्वयार्थ-पाणट्ठा = पानी । वा = अथवा । भोयणस्स = आहार के लिये । परागारं = गृहस्थ के घर में । पविसित्तु = प्रवेश करके साधु । जयं चिट्टे = यतना से खड़ा रहे। मियंभासे = परिमित बोले । य = और । रूवेसु = घर में रही हुई नाना प्रकार की वस्तुओं के रूप पर । मणं = कभी मन । न करे = नहीं करे।
भावार्थ-भिक्षा जीवी होने से साधु को आवश्यक वस्तु के लिये गृहस्थ के घर जाना पड़ता है।