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[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-आयारप्पणिहिं = आचार-सम्पदा को । लद्धं = पाकर । भिक्खुणा = भिक्षु को। जहा कायव्व = जैसा करना चाहिये । तं भे = वह मैं तुमको । उदाहरिस्सामि = कहूँगा । आणुपुव्विं = आनुपूर्वी-क्रम से उसे । मे सुणेह = मुझ से सुनो।
भावार्थ-सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यों को कहते हैं-“आचार की बहुमूल्य निधि को पाकर साधु को किस प्रकार आचरण करना चाहिये, वह मैं तुमसे कहूँगा । उसको तुम ध्यानपूर्वक क्रम से श्रवण करो । तीसरे अध्ययन में संयमी के लिए निषिद्ध आचार का कथन किया गया था और आचार-कथा के रूप में अठारह स्थानों का परिचय दिया गया था। इस आठवें अध्ययन में आचार की उस जानकारी को पाकर क्या करना चाहिये, वह मैं कहता हूँ।”
पुढविदग-अगणिमारुय, तणरुक्ख सबीयगा।
तसा य पाणा जीवत्ति, इइ वुत्तं महेसिणा ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद
पृथ्वी जल अग्नि वायु तथा, तृण तरु आदि के बीज सहित ।
त्रस तथा गतिशील कहे प्राणी. हैं महर्षि जन से जीव कथित ।। अन्वयार्थ-पुढविदगअगणिमारुय = पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय और वायुकाय । तणरुक्खसबीयगा = तृण, वृक्ष आदि बीज पर्यन्त वनस्पतिकाय । तसा य पाणा जीवत्ति = और बेइन्द्रियादि त्रस, ये जीव हैं। इइ महेसिणा = ऐसा महर्षियों ने । वुत्तं = कहा है।
भावार्थ-संसार में छह प्रकार के जीव हैं, जिन्हें षट्जीवनिका अध्ययन में बता चुके हैं। जैसे-1. पृथ्वीकाय, 2. जलकाय, 3. अग्निकाय, 4. वायुकाय, 5. तण वक्ष आदि बीज पर्यन्त वनस्पतिकाय और 6. त्रसकाय । ये प्राणी छह काया के जीव हैं, ऐसा गौतमादि महर्षियों ने कहा है।
तेसिं अच्छणजोएण, णिच्चं होयव्वयं सिया।
मणसा काय-वक्के ण, एवं भवइ संजए ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद
उनकी हिंसा का नित्य त्याग, करके ही हम हिंसा त्यागी।
तन मन और वचन द्वारा, होता संयत संयम भागी।। अन्वयार्थ-तेसिं = उनके साथ । मणसा काय वक्केण = मन, वचन और काय योग से । णिच्चं अच्छणजोएण = सदा अहिंसक भाव से । होयव्वयंसिया = रहना चाहिये । एवं = इस प्रकार अहिंसक रहने वाला । संजए = संयमी साधु । भवइ = होता है।