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[दशवैकालिक सूत्र सीओदगं न सेविज्जा, सिलावुटुं हिमाणि य।।
उसिणोदगं तत्तफासुयं, पडिगाहिज्ज संजए।।6।। हिन्दी पद्यानुवाद
शीतल जल सेवन करे नहीं, ओले वर्षा जल या हिम को।
उष्ण-तप्त-प्रासुक जल जो हो, संयत ग्रहण करे उनको।। अन्वयार्थ-सीओदगं = सचित्त ठण्डे जल का । न सेविज्जा (सेवेज्जा) = सेवन नहीं करे । य = और । सिलावुटुं = शिला-ओले, वर्षा । हिमाणि = हिम-बर्फ को नहीं लेवे । उसिणोदगं = उष्ण जल । तत्तफासुयं = जो तपकर प्रासुक हो चुका है। संजए = संयमी गवेषणा कर । पडिगाहिज्ज (पडिगाहेज्ज) = उसको ग्रहण करे।
भावार्थ-जल के सम्बन्ध में शास्त्रकारों ने कहा है कि संयमी साधु-सचित्त शीतल जल और ओले, वर्षा तथा हिम के पानी का सेवन नहीं करे । पानी जीवों का पिण्ड है। इसलिये संयम-प्रेमी मुनि तृषा का परीषह सहन करके भी सचित्त जल को ग्रहण नहीं करे । उष्ण जल, अग्नि पर तप कर जो निर्जीव हो चुका है, वैसा पानी और पाँचवें अध्ययन में जैसा अचित्त जल व धोवन का वर्णन कया गया है, वैसा अचित्त जल मुनि ग्रहण करे।
उदउल्लं अप्पणो कायं, नेव पुंछे न संलिहे।
समुप्पेह तहाभूयं, नो णं संघट्ट ए मुणी ।।7।। हिन्दी पद्यानुवाद
जल से गीले अपने तन को, मुनि ना पोंछे व मले नहीं।
निज आर्द्र-देह को देख श्रमण, छूए भी उसको कभी नहीं।। अन्वयार्थ-उदउल्लं = सचित्त जल से गीले । अप्पणो कायं = अपने शरीर को । नेव पुंछे = कभी पोंछे नहीं। न संलिहे = रेखा खींचे या मले नहीं। तहाभूयं = तथा-भूत यानी ऐसे गीले शरीर व वस्त्रादि को । समुप्पेह = देखकर । मुणी = मुनि । नो णं संघट्टए = उनका संघट्टन यानी स्पर्श भी नहीं करे ।
भावार्थ-वर्षा-काल में कभी कारणवश गमनागमन करते हुए मुनि का शरीर सचित्त पानी से गीला हो जाय, तो उस गीले शरीर आदि को पोंछना नहीं तथा हाथ से मलना भी नहीं। साधु तथाभूत यानी ऐसे सचित्त जल से गीले हुए शरीर आदि का संघट्टन भी नहीं करे । यानी जब तक शरीर स्वयमेव शुष्क न हो जाय, तब तक कोई क्रिया न करे।
इंगालं अगणिं अच्चिं, अलायं वा सजोइयं । न उंजिजा न घट्टिजा, नो णं निव्वावए मुणी ।।8।।