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[दशवकालिक सूत्र अन्वयार्थ-भासाए = भाषा के । दोसे = दोषों को । य = और । गुणे = गुणों को । जाणिया = जानकर । य = और । तीसे य = उसके । दुढे = दोषों का । सया = सदा । परिवज्जए = वर्जन करे । छसु संजए = छह काय के जीवों पर संयम वाला । सामणिए बुद्धे = संयम में सदा प्रयत्नशील बुद्धिमान् साधु । सया जए = सदा यत्न करे । हियं = हितकारी तथा । आणुलोमियं (अणुलोमियं) = अनुकूल वचन । वइज्ज (वएज्ज) = बोले।
भावार्थ-षट्कायिक जीवों पर संयम करने वाला मुनि भाषा के गुण और दोषों को जानकर उस भाषा के दोषों को सदा के लिये त्याग दे तथा श्रमण धर्म में सदा रमण करने वाला बुद्धिमान् मुनि हितकारी तथा जो सबके लिये अनुकूल हो, वैसी भाषा बोले।
परिक्खभासी सुसमाहि इंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए। स निद्भुणे धुण्णमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ।।
त्ति बेमि ।।57॥ हिन्दी पद्यानुवाद
बोले सोच जितेन्द्रिय मुनि, कर दूर कषाय हो द्रव्य रहित।
हटा पुराकृत कर्मबन्ध, करता इह-परभव आराधित ।। अन्वयार्थ-परिक्खभासी = गुण-दोषों की परीक्षा करके बोलने वाला। सुसमाहिइंदिए = इन्द्रियों को शब्दादि विषयों से बचाने वाला वश में रखने वाला । चउक्कसायावगए = क्रोध आदि चारों कषायों से दूर । अणिस्सिए = संसार के प्रपंचों से मुक्त । स = वह साधु । पुरेकडं = पूर्वकृत । धुण्णमलं = ढीले किये गये कर्म मल को । निर्धणे = अलग कर दे । तहा = और इस तरह वह । लोगमिणं = इस लोक और । परं = पर लोक की। आराहए = आराधना कर लेता है।
भावार्थ-लाभालाभ की परीक्षा करते हुए बोलने वाला, शब्दादि विषयों से इन्द्रियों को वश में रखने वाला, क्रोध आदि चारों कषायों से अलग और संसार के प्रपंचों से मुक्त वह साधु अपने पूर्वकृत कर्ममल को अलग कर देता है और इस लोक तथा परलोक की आराधना करता है अर्थात् दोनों लोक सुधार लेता है, आराध लेता है।
त्ति बेमि = (इति ब्रवीमि) ऐसा मैं कहता हूँ।
।। सातवाँ अध्ययन समाप्त ।। 8288888888888880