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सातवाँ अध्ययन]
[201 अन्वयार्थ-नाणदसण संपन्नं = जो सम्यक् ज्ञान और दर्शन से युक्त हैं। संजमे = संयम । यं = तथा । तवे = तपस्या में । रयं = रमण करने वाले हैं। एवं = ऐसे । गुणसमाउत्तं = संयम गुणों से युक्त। संजयं = संयमी को ही। साहुमालवे = साधु रूप से कथन करे।
भावार्थ-साधु वेष से नहीं, गुणों से होता है। साधु का अर्थ साधना करने वाला है। सच्चे सोने की तरह उसमें खोट नहीं आता । जो सम्यग्ज्ञान, और श्रद्धा सम्पन्न है, तथा 17 प्रकार के संयम और तप में रमण करने वाला है, ऐसे गुण युक्त संयति को ही साधु नाम से कथन करना चाहिये।
देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च विग्गहे ।
अमुयाणं जओ होउ, मा वा होउत्ति नो वए।।50।। हिन्दी पद्यानुवाद
देवों के और मनुष्यों के, या तिर्यंचों के विग्रह में ।
जीत इसी की हो या ना, यह कहे न साधु कभी जग में ।। अन्वयार्थ-देवाणं मणुयाणं = देव, मनुष्य । च = और । तिरियाणं = तिर्यञ्चों के। च = और । विग्गहे = विग्रह यानी युद्ध में । अमुयाणं = अमुकों की । जओ होउ = जय हो । वा = अथवा । मा = अमुक की नहीं। होउत्ति = हो, इस प्रकार । नो वए = नहीं बोले।
भावार्थ-भूत, प्रेत आदि देव, मनुष्य और पशुओं की लड़ाई में साधु लड़ने वालों में से अमुक जीत जावे अथवा अमुक हार जावे, इस प्रकार राग-द्वेष वर्द्धक वचन नहीं बोले ।
वाओ वुटुं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवं त्ति वा।
कयाणु होज्ज एयाणि, मा वा होउत्ति णो वए ।।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
वायु वृष्टि सर्दी गर्मी, शुभ धान्य और कल्याण कथन ।
कब होंगे अथवा ना होंगे, ऐसे ना बोले कभी श्रमण ।। अन्वयार्थ-वाओ = वायु । वुटुं = वृष्टि। च = और। सीउण्हं = शीत-उष्ण । खेमं = नीरोगता । धायं = सुभिक्ष । वा = अथवा । सिवं त्ति = शिव-निरुपद्रवता । एयाणि = ये सब । कयाणु होज्ज (हुज्ज) = कब होंगे । वा = अथवा । मा होउ = ये कब नहीं होंगे। त्ति = इस प्रकार । णो वए = नहीं कहे।
भावार्थ-ऋतु परिवर्तन के विषय में साधु वायु, वृष्टि, शीत, उष्ण, क्षेम, सुभिक्ष और शिव-उपद्रव रहितता, ये सब कब होंगे अथवा ये सब कब नहीं होंगे, ऐसा नहीं बोले ।