________________
छठा अध्ययन
[167
सीओदगसमारंभे, मत्तधोयण छ ड्डणे ।
जाई छंणंति भूयाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ।।52।। हिन्दी पद्यानुवाद
शीतल जल का समारम्भ और अशन पात्र प्रक्षालन में।
मरते कितने जीव, असंयम को देखा प्रभु ने उनमें ।। गृहस्थ के कांस्य पात्रादि में आहार करने पर उसे माँजना या धोना होगा, इसलिये कहा
अन्वयार्थ-सीओदगसमारंभे = ऐसे पात्रों को धोने एवं साफ करने में कच्चे जल का आरम्भ होगा। मत्तधोयणछड्डणे (मत्तधोअणछड्डणे) = पात्र धोकर पानी अयतना से फेंका जाएगा। जाई = जिससे । भूयाई = जीवों की । छंणंति = हिंसा होगी । तत्थ = इस प्रकार ऐसे बर्तनों की सफाई के कार्य में । असंजमो = षट्कायिक जीवों का असंयम । दिट्ठो = देखा गया है।
भावार्थ-साधु पात्र इसलिये रखता है कि भोजन करते समय अन्नादि के कण नीचे गिरने से वे असंयम का कारण नहीं बनें । गृहस्थ के पात्र में आहार करने से सचित्त जलादि का आरम्भ अवश्यंभावी है। जैसा कि कहा है
पच्छाकम्मं पुरेकम्मं, सिया तत्थ ण कप्पड़ ।
एयमटुं ण भुजंति, णिग्गंथा गिहिभायणे ।।53।। हिन्दी पद्यानुवाद
पश्चात् पुरः कर्म के कारण, कल्प नहीं है वहाँ अशन ।
अत: गृहस्थों के बर्तन में, निर्ग्रन्थ नहीं करते भोजन ।। अन्वयार्थ-तत्थ = गृहस्थ के पात्र में भोजन करने से । पच्छाकम्मं = खाने के बाद बर्तन साफ करना । पुरेकम्मं = देने से पहले हाथ आदि धोना । सिया = सम्भव है अत: यह । ण कप्पइ = नहीं कल्पता है। एयमढे = इसलिये । णिग्गंथा = निर्ग्रन्थ साधु । गिहिभायणे = गृहस्थ के कांस्य पात्रादि में। ण भुंजंति = भोजन नहीं करते हैं।
भावार्थ-अपरिग्रही साधु खाना खाने के लिये कांस्य पात्रादि ग्रहण नहीं करता । इसलिये उसको पात्र चोरी जाने का खतरा नहीं। फिर काष्ठ-पात्र में उसके व्रतीपन का सहज परिचय भी प्राप्त होगा और काष्ठ पात्र में सचित्त जल के आरम्भ का दोष भी बचता है । यह गृहिभाजन में भोजन-त्याग का 14वां आचार स्थान है।