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[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-जा = जो भाषा । सच्चा = सत्य होकर भी । अवत्तव्वा = अवक्तव्य (सावध होने से बोलने योग्य नहीं) है। य = और जो । सच्चामोसा = मिश्र । य जा = जो फिर । मुसा = मृषा भाषा है। जा य = फिर जो । बुद्धेहिं = ज्ञानियों के द्वारा । अणाइन्ना (अणाइण्णा) = अनाचीर्ण निषिद्ध कही गई है। तं = उस भाषा को । पण्णवं = बुद्धिमान साधु । न भासिज्ज (भासेज्ज) = नहीं बोले।
भावार्थ-जो भाषा सत्य होकर भी अप्रिय तथा मर्मकारी होने से अवक्तव्य है, फिर जो भाषा मिश्र और मिथ्या है, वस्तु का विपरीत रूप से कथन करने वाली है तथा जिस भाषा का तीर्थङ्कर और गणधरों ने सेवन नहीं किया, किन्तु अवाच्य कहा है, उस भाषा का मतिमान को सदैव वर्जन करना चाहिये । सत्य और असत्य मिश्रित हो, उसे मिश्र कहते हैं। जीव मिश्र, अजीव मिश्र, अनन्त मिश्र, परित्त मिश्र आदि मिश्र के भेद हैं। पत्र आदि सहित को अनन्तकाय कहना अनन्त मिश्र है। ऐसे ही आमन्त्रणी 1, आज्ञापनी 2, याचनी 3, पुच्छणी 4, प्रज्ञापनी 5 आदि भाषा के अनेक प्रकार हैं।
असच्चमोसं सच्चं च, अणवज्जमकक्कसं।
समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिज्ज पण्णवं ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद
व्यवहार सत्य भाषा को भी, प्रिय हितकर बना प्राज्ञ बोलें।
गुण दोषों का करके विचार, सन्देह रहित भाषा बोलें।। अन्वयार्थ-पण्णवं = बुद्धिमान साधु कैसी भाषा बोले तो कहा। असच्चमोसं = व्यवहार भाषा लोक व्यवहार में प्रचलित भाषा । च = और । सच्चं = सत्य भाषा । अणवज्जं = जो दोष रहित हो। अकक्कसं = कोमल और मधुर हो । गिरं = वैसी भाषा । समुप्पेहं = अच्छी तरह सोचकर । असंदिद्धं = सन्देह रहित । भासिज्ज (भासेज्ज) = बोले।
भावार्थ-बुद्धिमान् साधु ऐसी भाषा बोले जो लोक व्यवहार में प्रचलित और सत्य हो । दूषित भाषा अगर सत्य भी हो तो साधु नहीं बोले । वे सदा निर्दोष और मधुर वचन, भले बुरे का विचार कर सन्देह रहितस्पष्ट रूप से समझ में आवे ऐसी भाषा बोले।
'सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।' सन्त इस उक्ति का पालन करते हैं । समुप्पेहं यानी पहले बुद्धि से सोचकर फिर बोलना चाहिये । जैसे-अन्धा पुरुष आगे चलने वाले का अनुसरण करता है, वैसे ही बुद्धि के अनुसार वचन की प्रवृत्ति होनी चाहिये । जैसे कि नियुक्ति में कहा है
पुव्वं बुद्धीइ पेहित्ता, पच्छा वयमुदाहरे । अचक्खुओ व नेतारं, बुद्धिमन्नेउ ते गिरा ।।292 ।।