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सातवाँ अध्ययन]
[187 = फिर । पुरिसगुत्तेण = पुरुष के गोत्र से । बूया = बोले । जहारिहं = यथा योग्य शिक्षा, दीक्षा अवस्था को । अभिगिज्झ = ग्रहण कर । आलविज्ज = एक बार । वा = अथवा । लविज्ज = अनेक बार बोले ।
भावार्थ-किसी पुरुष को सम्बोधन करना हो तो उसके नाम से या गोत्र एवं उपनाम से पुकारे । गुण अवस्था आदि से यथायोग्य ग्रहण कर, अवस्था वाले को बाबाजी, शिक्षित को पण्डितजी इत्यादि प्रकार से कहकर एक बार अथवा आवश्यकता हो तो अनेक बार बोले।
पंचिंदियाण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं ।
जाव णं न विजाणिज्जा, ताव जाइत्ति आलवे ।।21।। हिन्दी पद्यानुवाद
पंचेन्द्रिय प्राणी का जब तक, नर नारी भेद न जान सके।
तब तक जाति की संज्ञा से, सम्बोधन करना उचित लगे।। अन्वयार्थ-पंचिंदियाण = पाँच इन्द्रिय वाले । पाणाणं = गो, महिष आदि प्राणियों में। एस इत्थी = यह स्त्री है। अयं पुमं = या यह नर है। जाव णं = जब तक बराबर । न = नहीं। वियाणिज्जा (वियाणेज्जा) = जान ले । ताव = तब तक । जाइत्ति = जाति-गौ जाति, महिष जाति । आलवे = इस प्रकार बोले।
भावार्थ-पशुओं में दूरी आदि के कारण जब तक पंचेन्द्रिय प्राणियों में यह नर है या मादा-स्त्री है, ऐसा बराबर जान नहीं ले तब तक गाय, भैंस या बैल है, यह नहीं कहकर गौ जाति, महिष जाति, श्वान आदि जाति वाचक पद से कथन करे।
तहेव मणुसं' पसुं, पक्खिं वा वि सरीसिवं ।'
थूले पमेइले वज्झे, पाइमेत्ति य णो वए ।।22।। हिन्दी पद्यानुवाद
वैसे ही मनुज चतुष्पद पक्षी, अजगर आदि सरीसृप को।
मोटा तुंदिल वध्य पाच्य है, कहना उचित नहीं उनको ।। अन्वयार्थ-तहेव = वैसे ही । मणुस्सं = मनुष्य । वा वि = अथवा । पसुं = किसी पशु । पक्खिं = पक्षी को तथा । सरीसिवं = अहि, अजगर आदि सरक कर चलने वाले को । थूले = यह स्थूल मोटा है। पमेइले = मेदवाला है। वज्झे = वध्य है। पाइमेत्ति (पाइमित्ति) = पकाने योग्य । य = और । णो वए = नहीं बोले।
1. माणुस - पाठान्तर। 2. सरिसवं - पाठान्तर।