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सातवाँ अध्ययन]
6. सुणिट्ठिए-इस अहंकारी का धन नष्ट हुआ सो अच्छा हुआ। 7. सुलटेत्ति-हष्ट-पुष्ट अवयव वाली यह कन्या सुंदरांगी है, विवाह योग्य है, अच्छी है। इस
प्रकार की सावध भाषा साधक नहीं बोले। (3) किन्तु इस प्रकार के निरवद्य वचन बोले कि1. सुकडेत्ति-तपस्वी वृद्धों की इस मुनि ने अच्छी सेवा की।
सुपक्केत्ति-आतापना तप से तन अच्छा तपाया। सुच्छिण्णे-मोह के बन्धनों का अच्छा छेदन किया।
सुहडे-स्वाध्याय से अज्ञान अन्धकार का हरण अच्छा किया। 5. मडे-पण्डित मरण अच्छा प्राप्त किया। 6. सुणिट्ठिए-अप्रमादी बनकर कर्मों का अच्छा नाश किया। 7. सुलटेत्ति-अमुक की क्रिया अति सुन्दर है, तप की कान्ति से अमुक का चेहरा सुन्दर लग
रहा है। पयत्तपक्कत्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिण्णत्ति व छिण्णमालवे।
पयत्तलठ्ठत्ति व कम्महेउयं, पहारगाढ त्ति व गाढमालवे ।।42।। हिन्दी पद्यानुवाद
श्रमपूर्ण पक्व को पका कहे, श्रम छिन्न वस्तु को छिन्न कहे।
कर्म हेतु से कर्म नष्ट, गाढ़ प्रहार को गाढ़ कहे ।। अन्वयार्थ-व = तथा । पक्कं = अच्छे पके हुए को । पयत्तपक्कत्ति = प्रयत्न से आरम्भ से, पक्व हुआ ऐसा। आलवे = कथन करे । व = तथा। छिण्णं = अच्छे कटे को। पयत्तछिण्ण त्ति = प्रयत्न-छिन्न । आलवे = कहे । व = और । पयत्तलठ्ठत्ति = सधे अभ्यास से किये हुए को । कम्महेउयं = कर्म हेतुक कहे । व = एवं । गाढं = गाढ़ को । पहारगाढत्ति = प्रहार-गाढ़। आलवे = ऐसा कहे।
भावार्थ-सावध भाषा से बचने के लिये साधु कैसे वचन बोले, इसके लिए कहते हैं-अच्छे पके को प्रयत्न पक्व, अच्छे कटे को प्रयत्न छिन्न कहे, अभ्यास बल से किये गये को कर्म हेतुक और गाढ़ को प्रहार गाढ़ कहे । इन शब्दों में परिश्रम का ही उल्लेख किया गया है। जो जिस तरह किया जाय उसको वैसा कहना सावद्य नहीं है, निरवद्य है।