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सातवाँ अध्ययन
[195 हिन्दी पद्यानुवाद
ना कहे नदी यह उदकभरी, तन से तैरी जा सकती है।
या नावों से है पार योग्य, सुख पेया कहला सकती है।। अन्वयार्थ-तहा = तथा । पुण्णाओ = भरी हुई । नईओ = नदियों को । कायतिज्जत्ति = काया से तिरने योग्य है ऐसा । नो वए = नहीं कहे । नावाहिं = नौकाओं के द्वारा । तारिमाओ त्ति = तिरने योग्य है ऐसा । पाणिपिज = तथा यह सुख पेय है तट पर बैठा कोई भी अंजलि से पानी पी सकता है। त्ति = इस प्रकार भी। नो वए = नहीं बोले।
भावार्थ-तथा भरी हुई नदियों को देखकर ये शरीर से तिरने योग्य हैं या नौका से पार करने योग्य हैं और ये ऐसी सुख पेया हैं कि तट पर बैठा बच्चा भी आराम से इनका पानी पी सकता है, साधु ऐसा नहीं कहे।
बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा।
बहुवित्थडोदगा या वि, एवं भासिज्ज पण्णवं ।।39।। हिन्दी पद्यानुवाद
जल भरी अगाध वेगवाली, विस्तार-उदग-क्षेत्रों वाली।
मुनि प्राज्ञ कहें ऐसी भाषा, जो हो उनकी मर्यादा वाली।। अन्वयार्थ-बहुवाहडा = जल से पूर्ण भरी हुई है। अगाहा = अगाध गहराई वाली है। बहुसलिलुप्पिलोदगा = पानी की अधिकता से तरंगे उछलकर तटों से टकराती हैं। यावि (वा वि) =
और भी। बहुवित्थडोदगा = बहुत विस्तृत उदक वाली है। पण्णवं = बुद्धिमान् साधु । एवं = ऐसी। भासिज्ज (भासेज्ज) = निर्दोष भाषा बोले।
__ भावार्थ-नदियों को देखकर साधु इस प्रकार बोले कि यह नदी जल से पूर्ण भरी हुई है, अगाध जल वाली है, दूसरी बड़ी नदी के पानी से होड़ लेने वाली है और इसका पानी बहुत फैला हुआ है। इस प्रकार बुद्धिमान् साधु को निर्दोष वचन बोलने चाहिये।
तहेव सावज्जं जोगं, परस्सट्टाए' निट्ठियं ।
कीरमाणं त्ति वा णच्चा, सावज्ज न लवे मुणी ।।40।। हिन्दी पद्यानुवाद
भूत भविष्यत वर्तमान में, परहित जान पाप का कर्म। मुनि बोले सावध वचन ना, हो जिससे उत्पन्न अधर्म ।।
1.
परस्सट्ठा य, परस्सट्ठा अ - पाठान्तर ।