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सातवाँ अध्ययन
| वक्क सुदि (वाक्य शुदि)।
उपक्रम
छठे अध्ययन में आचार कथा का वर्णन किया गया। वह आचार-धर्म वचन शुद्धि के बिना पूर्ण नहीं होता । क्योंकि मृषावाद विरमण आचार-धर्म का मुख्य अंग होने से उसके लिये वचन-शुद्धि एवं वाच्यअवाच्य का ज्ञान आवश्यक है।
इस सप्तम अध्ययन में वाक्य-शुद्धि (वचन-शुद्धि) का वर्णन किया जायेगा । सत्यव्रती कैसी भाषा बोले अथवा कैसी नहीं, जिससे कि उसका सत्य व्रत निर्मल रह सके, इस दृष्टि से इस अध्ययन में वर्णित चार प्रकार की भाषाओं में से असत्य और मिश्र को छोड़कर सत्य एवं व्यवहार भाषा का ही वह प्रयोग करे । सत्य भी सावद्य और पर पीड़ाकारी हो तो वैसा सत्यवचन भी नहीं बोले । कहा गया है कि “जा य सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा । जा य बुद्धेहिऽणाइन्ना, न तं भासेज्ज पण्णवं।"
__ अर्थात् जो भाषा सत्य होकर भी अवक्तव्य यानी प्रकट करने योग्य नहीं है और जो मिश्र तथा मिथ्या है, जो ज्ञानियों द्वारा अनाचीर्ण है, वैसी भाषा सत्यव्रती नहीं बोले । तब कैसी भाषा बोले तो बताया गया है कि साधु सत्य भाषा, व्यवहार भाषा और पापरहित, कोमल और जो सन्देह रहित हो, आवश्यक होने पर वैसी भाषा का प्रयोग करे । इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में बोलने का निषेध भी है और विधान भी। अवाच्य वचन नहीं बोलने से गुप्ति का आराधन होता है। जबकि शास्त्र विहित वचन बोलने से समिति का भी पालन होता है। जो स्व-पर दोनों के लिये लाभकारी है। स्त्री-पुरुष और दृष्टि में आने वाले भवन एवं वनादि को देखकर साधु कैसी भाषा का प्रयोग करे और किसको किन शब्दों में पुकारे, प्रस्तुत अध्ययन में इसका भी सरल और स्पष्ट भाषा में प्रतिपादन किया गया है। पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसार यह अध्ययन सत्य प्रवाद नामक पूर्व से उद्धृत किया गया है । बोलने से पहले सत्यव्रती को क्या बोलना' चाहिये, इसका विचार कर लेना चाहिये। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जिसको सावद्य और निरवद्य वचन का भेद ज्ञात नहीं, उसका बोलना भी उचित नहीं। फिर उसके द्वारा देशना देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। नियुक्तिकार ने विवेकपूर्ण बोलने को भी मौन की तरह तप कहा है, जैसे-“वयण-विभत्ती-कुसलो वओगयं बहुविहं वियाणंतो। दिवसंपि भासमाणो