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सातवाँ अध्ययन]
[183 अन्वयार्थ-तहेव = कठोर भाषा की तरह ही । काणं = काणे को । काणे त्ति = काणा है। वा = अथवा । पंडगं = हिंजड़े को । पंडगे त्ति = हिंजड़ा है। वा वि = तथा । वाहियं = रोगी को । रोगित्ति = रोगी है। तेणं = चोर को। चोरे = चोर है। त्तिणो वए = ऐसा भी नहीं कहे।
भावार्थ-व्रती के लिये सत्य भाषा का कथन भी, जो पीड़ाकारी और अप्रिय हो, वर्जित किया गया है। कहा है कि काणे को काणा, पंडग को पंडग, रोगी को रोगी, चोर को चोर और अन्धे को अन्धा ऐसा अप्रिय वचन नहीं बोले । जैसे-अन्धे को सूरदास कहने से काम निकलता है और उसे अप्रिय भी नहीं लगता है तो व्रती ऐसे कटु एवं पीड़ाकारी सत्य को भी बड़े प्रियकारी ढंग से बोले, इसी में उसकी कुशलता है।
एएण अन्नेण अटेण, परो जेणुवहम्मइ ।
आयारभावदोसण्णू, न तं भासिज्ज पण्णवं ।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद
ऐसे ही अन्य तदर्थों से, जो पर हित में पीड़ाकारी।
आचार भाव-दोषज्ञ प्राज्ञ, ना बोले वैसा दु:खकारी।। अन्वयार्थ-आयारभावदोसण्णू = आचार भाव के दोष को जानने वाला । पण्णवं (पन्नवं) = बुद्धिमान् साधु । एएण = पूर्वोक्त अर्थ से। अन्नेण = ऐसे ही अन्य । अट्टेण = अर्थ से । जेण = जिसके द्वारा । परो = सुनने वाला । उवहम्मइ = कष्ट प्राप्त करे । तं = ऐसे वचन । न भासिज्ज (भासेज्ज) = नहीं बोले।
भावार्थ-साध्वाचार के दोष को जानने वाला प्रज्ञावान् मुनि इस प्रकार के या अन्य प्रकार के शब्दों से जिनसे सुनने वाले का मन कष्ट अनुभव करे वैसे शब्द, वैसी बात, वैसी वाणी अथवा वैसे पीड़ाकारी वचन कभी नहीं बोले।
तहेव होले गोलेत्ति, साणे वा वसुले त्ति य ।
दमए दुहए वा वि, नेवं भासिज्ज पण्णवं ।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद
अरे ! दुराचारी जारज ! श्वान गरीब नीच निष्ठुर ।
तथा अभागे आदि वचन, ना कहे प्राज्ञ जो हो न मधुर ।। अन्वयार्थ-तहेव = ऐसे ही। पण्णवं = बुद्धिमान् साधु । होले = किसी को हे ! होल । गोले (गोलि) = हे ! लंपट । त्ति = ऐसे । वा = अथवा । साणे = हे ! कुत्ता । य = और । त्ति = ऐसे ही। वसुले