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छठा अध्ययन]
भावार्थ-ब्रह्मचारी साधु स्नान तथा शरीर पर मर्दन करने के लिये कल्क, लोध्र, पद्मचूर्ण का कभी भी उपयोग नहीं करते । ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिये शास्त्र में जहाँ 10 गुप्तियाँ बताई गई हैं वहीं नवमी वाड़ विभूषा-वर्जन को कहा गया है। विभूषा-वर्जन से साधक कामिनियों के लिये आकर्षण का केन्द्र नहीं रहता और बाह्य तप की आराधना भी निर्विघ्न हो जाती है।
णगिणस्स वा वि मुंडस्स, दीहरोमणहंसिणो।
मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाइ कारियं ।।65।। हिन्दी पद्यानुवाद
नग्न तथा पूरे मुण्डित, हैं केश नखादि बढ़े जिनके ।
उपशान्त हुए जो मैथुन से, क्या शोभा से मतलब उनके ।। अन्वयार्थ-णगिणस्स = जो अत्यल्प वस्त्र रखने से नग्नवत् हैं । वावि = अथवा । मुंडस्स = द्रव्य-भाव से मुण्डित हैं और । दीहरोमणहंसिणो = जो बढ़े हुये नख तथा केश वाले हैं। मेहुणा = मैथुन भाव से । उवसंतस्स = जो उपशान्त हैं, उनको । विभूसाइ = विभूषा यानी तन की सजावट से । किं कारियं = क्या प्रयोजन है?
भावार्थ-साधु को विभूषा क्यों नहीं करनी, इसके लिये शास्त्रकार उपदेश देते हुए कहते हैं-जो अत्यल्प वस्त्र रखने से नग्नवत् रहते हैं केशलुंचन और राग-वर्जन के कारण द्रव्य-भाव से मुण्डित हैं तथा जो बढ़े हुये केशवाले हैं और मैथुन विषय भोगादि से उपशान्त हैं, उनको विभूषा से क्या प्रयोजन है ?
विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं ।
संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ।।66।। हिन्दी पद्यानुवाद
तन की शोभा के हेतु भिक्षु, दुश्छेद्य कर्म बन्धन करता।
दुस्तर घोर भवाब्धि मध्य, उस कारण से आकर पड़ता ।। अन्वयार्थ-विभूसावत्तियं = विभूषा के निमित्त से । भिक्खू = साधु । चिक्कणं = चिकनेनिकाचित । कम्मं = कर्मों का । बंधइ = बन्ध करता है । जेणं = जिससे जीव । दुरुत्तरे = कठिनाई से पार करने योग्य । घोरे = घोर-भयंकर । संसारसायरे = संसार सागर में। पडड = गिर जाता है।
__ भावार्थ-जैन साधु राग-विजय का पथिक है विभूषा करने से उसमें काम राग की वृद्धि होती है, अपने रूप लावण्य और कान्ति का मोह उत्पन्न होता है, जिससे चिकने कर्मों का बन्ध होता है। कर्म से भारी बनी आत्मा दुस्तर-भयंकर संसार-सागर में गिरकर जन्म-मरण करती रहती है।