________________
I
[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ - घसासु = पोली । य = और । भिलगासु = दरार वाली भूमि में । संतिमे = ये हैं । सुहुमा = सूक्ष्म | पाणा = कीड़े आदि प्राणी । जे य = और जिनको । सिणायंतो = स्नान करता हुआ । भिक्खू = भिक्षु-साधु । वियडेण = अचित्त जल । उप्पलावए (उप्पिलावए) = बहा देगा - डुबा देगा
I
172]
भावार्थर्थ-साधु यदि स्नान करेगा तो स्नान का गिरा हुआ पानी इधर-उधर बहकर जायेगा, जिससे भूमि की दरार में रहे हुए सूक्ष्म जीव-कीड़ी, मकड़ी आदि उस पानी से बह जायेंगे या मिट्टी में दब जायेंगे जो उनके लिये कष्ट एवं प्राण वध का कारण होगा ।
हिन्दी पद्यानुवाद
तम्हा ते ण सिणायंति, सीएण-उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्ठगा ।163।।
अन्वयार्थ-तम्हा = इसलिये । ते = वे निर्ग्रन्थ मुनि। सीएण = शीतल जल । वा = या। उसिणेण = गर्म पानी से । ण सिणायंति = स्नान नहीं करते हैं। जावज्जीवं = जीवन पर्यन्त । असिणाणं = स्नान वर्जन रूप । घोरं = घोर-कठिन । वयं = व्रत के पालन में । अहिट्टगा = टिके रहते हैं ।
हिन्दी पद्यानुवाद
अतएव न गर्म, शीत जल से, वे स्नान साधु जन करते हैं। जीवन भर स्नान रहित होकर, दुस्सह व्रत पालन करते हैं ।।
भावार्थ- पानी में बह जाने से जीवों की हिंसा होती है इसलिये निर्ग्रन्थ मुनि ठण्डे अथवा गर्म जल से स्नान नहीं करते । इस प्रकार जीवन भर के लिये स्नान-वर्जन रूप इस कठोर व्रत के पालन में मुनि अधिष्ठित रहते हैं । यह मुनि का सतरहवां आचार स्थान हुआ ।
1. लुद्ध पाठान्तर ।
सिणाणं अदुवा कक्कं, लोद्धं' पउमगाणि य । गायस्सुव्वट्टणट्ठाए, णायरंति कयाइ वि ।।64।।
स्नान योग्य सुगंधित पिष्ट, और लोद्र पद्मकेशर सुरभित । करने शरीर का संमर्दन, करते हैं श्रमण इन्हें वर्जित ।।
अन्वयार्थ-सिणाणं = स्नान । अदुवा = अथवा । कक्कं = चन्दनादि का मिश्रित कल्क । लोद्धं = लोध्र । य = और। पउमगाणि = पद्मकेशर आदि चूर्ण। गायस्स = शरीर पर । उव्वट्टणट्ठाए = उद्वर्तन (उबटन) करने के लिये । कयाइ = मुनि कभी । वि = भी। णायरंति = उपयोग में नहीं लेते।
T