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छठा अध्ययन
[165 पिंडं सिज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य।
अकप्पियं ण इच्छिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ।।48।। हिन्दी पद्यानुवाद
भोजन, शय्या, वस्त्र तथा, चौथा है पात्र कहा जाता।
इनमें अकल्प को ना चाहे, और कल्प ग्रहण में है आता ।। अन्वयार्थ-पिंडं = चारों प्रकार के आहार । सिज्जं = शय्या, ठहरने का स्थान । च वत्थं = और वस्त्र कम्बल । च = और । चउत्थं = चौथा । पायमेव य = और पात्र, उपलक्षण से पाट, चौकी शास्त्र आदि। अकप्पियं = अकल्पनीय सदोष । ण = नहीं । इच्छिज्जा = चाहे। कप्पियं = निर्दोष-कल्पनीय ही। पडिगाहिज्ज = ग्रहण करे।
भावार्थ-आरम्भ से बचने के लिये साधु सदोष अशन पानादि चारों आहार, मकान अथवा पाट आदि तथा वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि सदोष हों या जो साधु के निमित्त से बनाये गये हों अथवा खरीदे गये हों, को ग्रहण नहीं करें। निर्दोष होने से जो कल्पनीय हों, उन्हीं को साधु ग्रहण करे ।
जे णियागं ममायंति, कीयमुद्देसियाहडं ।
वहं ते समणुजाणंति, इइ वुत्तं महेसिणा ।।49।। हिन्दी पद्यानुवाद
आमन्त्रित क्रीत तथा उद्देशिक, आहृत जो साधु ग्रहण करते।
जिनवर बोले वे अनुमोदन, षट्कायिक वध का हैं करते ।। अन्वयार्थ-जे = जो साधु । णियागं = आमन्त्रित-नित्यपिण्ड । कीयं = साधु के लिये खरीद कर लाये हुए । उद्देसिय = साधु के लिये आरम्भ पूर्वक बनाये हुए । आहडं = पर घर से सामने लाये हुए आहार आदि को । ममायंति = ग्रहण करते हैं । ते = वे साधु । वह = हिंसा की। समणुजाणंति = अनुमोदना करते हैं। इइ = ऐसा । महेसिणा = महर्षि महावीर ने । वुत्तं = कहा है।
भावार्थ-श्रमण आरम्भ का सम्पूर्ण त्यागी है, अतएव उसको कृत, कारित, और अनुमोदन का मन, वाणी, और काया से त्याग होता है। आहार-वस्त्र, पात्र आदि आवश्यक पदार्थ के ग्रहण करने में भी अगर हिंसा की सम्भावना देखे और औद्देशिक, क्रीत, आहृत आदि दोषों की सम्भावना देखे तो वैसे दोषयुक्त आहारादि को भी वह अकल्पनीय मानकर ग्रहण नहीं करता। उसके ग्रहण करने में भगवान् ने हिंसा की अनुमोदना बतलाई है। यह 13वां स्थान है।