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[दशवैकालिक सूत्र _भावार्थ-1. अण्डज, 2. पोतज, 3. जरायुज, 4. रसज, 5. संस्वेदिम, 6. सम्मूर्च्छिम, 7. उद्भिज, और 8. औपपातिक ये मुख्य त्रस कायिक जीव हैं। इनके पशु, पक्षी और मनुष्य के शरीर के आश्रित कृमि, यूका आदि जीव रहते हैं। जब कोई एक त्रस जीव की हिंसा करता है, तो उसके आश्रित एवं उससे पलने वाले चाक्षुष, अचाक्षुष अनेक जीवों की हिंसा भी कर लेता है।
तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
तसकायसमारंभं, जावज्जीवाए वज्जए ।।46।। हिन्दी पद्यानुवाद
दुर्गति वर्द्धक, यह दोष कहा, इसलिये जान करके मन से।
त्रस की हिंसा छोड़े मुनि वर, जीवन भर वाणी से तन से ।। अन्वयार्थ-तम्हा = त्रसकाय की हिंसा पाप बढ़ाने वाली है, इसलिये । दुग्गइवडणं = दुर्गति को बढ़ाने वाले । एयं = इस । दोसं = दोष को। वियाणित्ता = जानकर । तसकायसमारंभं = त्रसकाय के आरम्भ को । जावज्जीवाए = जीवन भर के लिये । वज्जए = वर्जन कर दे।
भावार्थ-उपर्युक्त गाथा में त्रसकाय की हिंसा को अधिक दोष वाली जानकर साधुजनों को इसे सदा के लिये वर्जन करना चाहिए।
___ जाइं चत्तारिऽभुज्जाइं, इसिणाहारमाइणि ।
ताई तु विवज्जतो, संजमं अणुपालए ।।47।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो चार अकल्प कहे मुनि के, पट पात्र तथा शय्या भोजन ।
उन सबका करके त्याग श्रमण, संयम का सतत करे पालन ।। अन्वयार्थ-जाई = जो । आहारमाइणि = आहार आदि (पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्र) । चत्तारि = चार पदार्थ । इसिणा = मुनियों के लिये । अभुजाई = अग्राह्य हैं । ताई तु = उनका । विवज्जंतो = वर्जन करते हुए। संजमं = शुद्ध संयम-धर्म का । अणुपालए = वे पालन करें।
भावार्थ-छह व्रत और छह काय के जीवों की रक्षा का उपदेश देकर इस गाथा में बतलाया गया है कि आत्मार्थी मुनि वस्त्र, पात्र, आहार और शय्या (शास्त्र) भी कल्पनीय ही ग्रहण करें। महाव्रतों की और षट्काय जीवों की विराधना से बचने के लिये सदोष आहार आदि का त्याग करना आवश्यक है, इसलिये अकल्प के त्याग को 13वां स्थान कहा गया है।