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162] हिन्दी पद्यानुवाद
करते न वनस्पतिकायिक की, हिंसा तन मन या वचनों से । सम्यक् समाधि वाले संयत, वे त्रिविध करण और योगों से ।।
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अन्वयार्थ-सुसमाहिया = उत्तम समाधि भाव वाले। संजया = संयमी मुनि वणस्स वनस्पतिकाय की । मणसा = मन । वयसा = वचन । कायसा = और काया से । तिविहेण = तीन प्रकार के । करणजोएण = करण और योगों से । ण हिंसंति = हिंसा नहीं करते हैं। I
भावार्थ-जिनके मन में विकार नहीं ऐसे उत्तम समाधि सम्पन्न मुनि तीन प्रकार के करण और योगों से (मूल, कन्द, खंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, फूल, फल और बीज इनमें से किसी प्रकार की वनस्पति) की हिंसा नहीं करते । वनस्पति में कई एकास्थिक, बहु बीज और साधारण अनन्त जीवी भी होते हैं। साधु सचित्त का त्यागी होने से किसी भी प्रकार की वनस्पति की हिंसा नहीं करता है।
हिन्दी पद्यानुवाद
वणस्स विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे ।।42।।
हरितकाय की हिंसा करते, तदाश्रित का भी वध करता है। त्रस और विविध प्राणी-जीवन, चाक्षुष बिन चाक्षुष हरता है ।।
[दशवैकालिक सूत्र
अन्वयार्थ-वणस्सइं = वनस्पतिकाय की । विहिंसंतो = हिंसा करने वाला । तयस्सिए = उसके आश्रित । विविहे = अनके प्रकार के । तसे य = त्रस और । पाणे = जीव । चक्खुसे य= चाक्षुष एवं । अचक्खुसे = अचाक्षुषों की। हिंसई उ = हिंसा कर बैठता है ।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-वनस्पतिकाय की हिंसा करने वाला, प्रत्यक्ष में तो एक वनस्पति की ही हिंसा करता है, परन्तु गहराई से देखने पर वनस्पति- पत्र, फूल, फल, आदि के आश्रित हजारों सूक्ष्म जीवों की हिंसा भी कर बैठता है। गोभी के फूल और कई हरे पत्तों आदि पर वैसे ही रंग-रूप के हजारों सूक्ष्म जीवों को तो चर्म चक्षुओं से भी अनायास देखा जा सकता है।
तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गड़वड्ढणं । वणस्स समारंभ, जावज्जीवाए वज्जए ।14311
दुर्गति वर्द्धक यह दोष कहा, इसलिये जानकर के मन से । हरितकाय का वध छोड़े, जीवन भर श्रमण स्वयं तन से ।।