________________
छठा अध्ययन]
[161 भावार्थ-निर्ग्रन्थ मुनि वायुकाय की रक्षा के लिये तालवृत्त, पंखा या शाखा के कम्पन, हाथ, कपड़े का छोर, पुढे आदि से हवा करते नहीं और दूसरों से हवा करवाते नहीं। दूसरे ने पंखा चालू किया है तो वहाँ बैठकर उसका अनुमोदन भी करते नहीं।
जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं ।
ण ते वायमुईरंति, जयं परिहरंति य ।।39।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो वस्त्र पात्र कम्बल अथवा, मुनि धर्म चिह्न है रजोहरण।
वे इनसे हवा नहीं करते, करते संयम पूर्वक धारण ।। अन्वयार्थ-ते = वे साधु । व जंपि = और जो भी । वत्थं = वस्त्र । पायं = पात्र । कंबलं = कम्बल । वा पायपुंछणं = अथवा रजोहरण आदि से । वायं = वायु का । ण उईरंति = प्रेरण या संचालन नहीं करते, किन्तु । जयं = यतना पूर्वक । य परिहरंति = उसका परिहार करते हैं।
भावार्थ-साधु वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि से भी वायु का संचालन नहीं करे । वस्त्रादि को वैसे ही रखे और धारण करे, जिससे वस्त्र आदि हवा में ध्वजा की तरह लहरावे नहीं।
तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
वाउकायसमारंभं, जावज्जीवाए वज्जए ।।40।। हिन्दी पद्यानुवाद
इसलिये दोष-दुर्गति वर्द्धक, है वायुकाय का उपमर्दन ।
यह जान वायु का संचालन, दे छोड़ श्रमण सारे जीवन ।। अन्वयार्थ-तम्हा = इसलिये मुनिजन । दुग्गइवड्ढणं = दुर्गति को बढ़ाने वाले । एयं = इस । दोसं = दोष को । वियाणित्ता = जानकर । जावज्जीवाए = जीवन भर के लिये । वाउकाय समारंभं = वायुकाय के आरम्भ को । वज्जए = वर्जन करते हैं । यह उनका दसवाँ आचार स्थान है।
भावार्थ-उपर्युक्त चार गाथाओं द्वारा वायुकाय की पाप बहुलता का और साधुओं द्वारा विविध साधनों से उनकी हिंसा नहीं करने का उपदेश दिया गया है।
वणस्सई ण हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करण जोएण', संजया सुसमाहिया ।।41।।
1. जोएणं - इति पाठान्तर।