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छठा अध्ययन]
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अन्वयार्थ-पाइणं (पाईणं) = पूर्व । वा = अथवा । पडिणं (पडीणं) = पश्चिम | उड्ढ ऊर्ध्व दिशा। अणुदिसामवि = तथा अनुदिशाओं से भी । अहे = नीची दिशा । दाहिणओ = दक्षिण दिशा । वा वि = अथवा । उत्तरओ वि य = और उत्तर दिशा की ओर से भी । दहे = यह जलाती रहती है।
भावार्थ-अग्निकाय सब ओर से प्राणियों को जलाती रहती है। पूर्व दिशा, पश्चिम दिशा, ऊर्ध्व दिशाओं की ओर अनुदिशा, नीचे की ओर, दक्षिण और उत्तर दिशाओं की ओर से पास में आये पदार्थों और प्राणियों को जला देती है। (अग्निकाय के जीवों का शरीर ऐसी ही दाह प्रकृति वाला होता है, इसलिये पाँच स्थावरों में से पृथ्वी, जल और वनस्पति में तो देव गति से आकर जीव उत्पन्न होते हैं, किन्तु तेजस्काय और वायुकाय में नहीं ।)
हिन्दी पद्यानुवाद
भूयाणमेसमाघाओ, हव्ववाहो ण संसओ । तं पईवपयावट्ठा, संजया किंचि णारभे | 135 ।।
पावक प्राणी का है घातक, और द्रव्य विनाशक निस्संशय । अतएव प्रकाश प्रतापन को, आरम्भ न करते हैं संजय ।।
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अन्वयार्थ-एसं = यह । हव्ववाहो = हव्य का वहन करने वाली यानी अग्नि । भूयाणं जीवों के लिये। आघाओ ' = घात करने वाली है। ण संसओ = इसमें संशय की बात नहीं है। तं = इसलिये । संजया = साधु | पईवपयावट्ठा = प्रकाश और ताप के लिये । किंचि = किंचित् मात्र भी अग्नि का । |णारभे = आरम्भ नहीं करते ।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-साधु प्रकाश और ताप के लिये कभी अग्नि का किंचित् मात्र भी आरम्भ नहीं करते, क्योंकि अग्नि चाहे चकमक से उत्पन्न होने वाली हो, सूर्य किरण के चूल्हे, बेट्री, गैस या विद्युत् आदि से उत्पन्न हुई हो, सर्व विनाशकारी और सचित्त है । दयाव्रती साधु इससे होने वाले जीववध में किसी प्रकार की शंका नहीं करता ।
तम्हा एवं वियाणित्ता, दोसं दुग्गड़वड्ढणं । ते उकायसमारंभं, जावज्जीवाए वज्जए 113611
इसलिए दोष दुर्गति वर्द्धक, परिचय पावक का जान श्रमण । दे छोड़ अग्नि का समारम्भ, हो निर्मल मन यावज्जीवन ।।