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छठा अध्ययन
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आउकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा।
तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।।30।। हिन्दी पद्यानुवाद
अप्काय की हिंसा नहीं करते, मन से वाणी वा काया से।
चित्तसमाधियुक्त संयमी, त्रिविधकरण और योगों से ।। अन्वयार्थ-सुसमाहिया = समाधि भाव वाले । संजया = संयमी साधु । मणसा = मन । वयसा = वचन । कायसा = और काया से । तिविहेण = त्रिविध । करणजोएण (करण जोएणं) = करण और योग से । आउकायं = अप्काय की। न हिंसंति = हिंसा नहीं करते हैं।
भावार्थ-अप्काय जल-जीवों का पिण्ड है। जलकाय और उसके आश्रित सहस्रों अन्य जीव अन्यमत में भी माने गये हैं। उनमें भी बिना छने पानी के उपयोग का निषेध किया गया है। आचारांग के प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन में अप्काय के जीवों की हिंसा पर विस्तार से विचार किया गया है। यहाँ निर्ग्रन्थ के धर्म स्थान की अपेक्षा से कहा गया है कि संयमी साधु त्रिविध करण और योगों से मन, वचन और काया से जलकाय के जीवों की लेश मात्र भी हिंसा नहीं करते हैं।
आउकायं विहिंसंतो, हिंसइ उ तयस्सिए ।
तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे ।।31।। हिन्दी पद्यानुवाद
अप्कायिक की हिंसा करते, तदाश्रित का भी वध करता है।
त्रस स्थावर नाना जीवों को, चाक्षुष बिन चाक्षुष हरता है।। अन्वयार्थ-आउकायं = अप्काय की। विहिंसंतो = हिंसा करने वाला । तयस्सिए = जल के आश्रित । चक्खुसे य = चाक्षुष और । अचक्खुसे = अचाक्षुष। विविहे = विविध प्रकार के । तसे य पाणे = त्रस और स्थावर प्राणियों की। हिंसइ = हिंसा करता है।
___ भावार्थ-क्योंकि जल में अगणित चलते फिरते प्राणी हैं, इसलिये यह कहा गया है कि जलकाय के जीवों की हिंसा करने वाला जल के आश्रित दृश्य, अदृश्य, अगणित जीवों की भी हिंसा करता है।
तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं । आउकायसमारंभं, जावज्जीवाए वज्जए ।।32।।