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158] हिन्दी पद्यानुवाद
दुर्गतिवर्द्धक दोष कहा, अतएव जान करके मन से | अप्कायिक का वध तज देना, जीवन भर शुद्ध हृदय से 11
अन्वयार्थ-तम्हा एयं दुग्गइवड्ढणं = इसलिये इस दुर्गति को बढ़ाने वाले । दोसं = दोष को । वियाणित्ता = जानकर साधु । जावज्जीवाए = जीवन भर के लिये । आउकायसमारंभ = अप्काय के आरम्भ का । वज्जए = सर्वथा वर्जन करते हैं ।
भावार्थ-आठवें धर्म स्थान में निर्ग्रन्थों के लिये अप्काय के जीवों की हिंसा का निषेध किया गया है क्योंकि पृथ्वीकाय की तरह अप्काय की हिंसा भी दुर्गति को बढ़ाने वाली है, इसलिये इस दोष को जानकर साधु जीवन भर के लिये अप्काय के समारम्भ का वर्जन करते हैं।
हिन्दी पद्यानुवाद
जायतेयं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए । तिक्खमण्णयरं सत्थं, सव्वओ वि दुरासयं ।।33।।
हिन्दी पद्यानुवाद
जात तेज है पाप जनक, इनका मुनि जलन नहीं करते । तीक्ष्ण अन्यतर शस्त्र बड़ा, सब ओर जीव पकड़े जाते ।।
[दशवैकालिक सूत्र
अन्वयार्थ-जायतेयं = साधु जाततेज यानी अग्नि को । पावगं = पापकारी जानकर । जलइत्तए = जलाना । न इच्छंति नहीं चाहते हैं । तिक्खं = यह तीक्ष्ण और । अण्णयरं = अन्य शस्त्रों से एक अनोखा । सत्थं = शस्त्र है। सव्वओ वि = सभी तरफ से । दुरासयं = धारवाला होने से इसको सहना कठिन है ।
भावार्थ-नवम धर्मस्थान में अग्नि के आरम्भ का वर्णन किया गया है। इसे शास्त्रकारों ने एक बहुत भयंकर शस्त्र की उपमा दी है और इसीलिये इसको पापकारी कहा है। भाला, बर्छा, तलवार आदि शस्त्र तो एक ओर से ही हानि करते हैं, किन्तु अग्नि ऐसा शस्त्र है कि जो सब ओर से प्राणियों के लिये तापकारी है, इसलिये निर्ग्रन्थ मुनि अग्नि को जलाना नहीं चाहते हैं।
पाइणं पडिणं वा वि, उड्ढं अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वा वि, दहे उत्तरओ वि य ।।34।।
पूर्व और पश्चिम अथवा, ऊँचे और अनुदिक् जीवों को । दक्षिण-उत्तर या अधोभाग से, दहन करे पावक जग को ।।