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छठा अध्ययन]
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अन्वयार्थ - - तम्हा = इसलिये । दुग्गड़वड्ढणं = दुर्गति को बढ़ाने वाले । एयं = इस । दोसं = दोष को । वियाणित्ता = जानकर (संयमी साधक) । जावज्जीवाए = जीवन पर्यन्त के लिये । वणस्सइसमारंभ
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वनस्पतिकाय के आरम्भ का । वज्जए = वर्जन करते हैं।
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भावार्थ-अत: वनस्पतिकाय के जीवों के वध रूपी दोष, जो पापजनक और दुर्गति देने वाला है, को जाकर साधु भोजन-पान आदि आवश्यक कारणों से भी वनस्पति काय की हिंसा का जीवन भर के लिये वर्जन करते हैं । यह उनका 11वाँ आचार स्थान है। पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय और वायुकाय की तरह वनस्पतिकाय के भी एक ही स्पर्श इन्द्रिय है । रसना, नासिका, चक्षु और कर्ण इन्द्रियाँ उनमें नहीं हैं, फिर भी इनकी ज्ञान चेतना कुछ स्थूल रूप में जानी जाती है। जैसे-खिलना, कुम्हलाना आदि ।
हिन्दी पद्यानुवाद
तसकायं ण हिंसंति, मणसा वयसा कायसा । तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।।44।।
त्रसकायिक का वध ना करते, तन मन अथवा निज वचनों से । सम्यक् समाधि वाले संयत, निज त्रिविध योग या करणों से ।।
अन्वयार्थ - सुसमाहिया = सम्यग् समाधिशील। संजया = साधु । मणसा = मन से । वयसा = वचन से । कायसा = काया से । तिविहेण = तीन प्रकार के । करणजोएण (करणजोएणं) = करण और योगों से । तसकायं = त्रसकायिक जीवों की । ण हिंसंति = हिंसा नहीं करते ।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-समाधिशील साधु मन, वचन और काया से तीन प्रकार के करण और तीन प्रकार के योगों से त्रसकायिक- बेइन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा नहीं करते ।
तसकायं विहिंसंतो, हिंसइ उ तयस्सिए । तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे ||45||
सकायिक की हिंसा करते, आश्रित का भी वध करता है। स्थावर त्रस वा सूक्ष्म स्थूल, चाक्षुष बिन चाक्षुष को हरता है ।।
अन्वयार्थ-तसकायं = त्रसकाय की। विहिंसंतो = हिंसा करने वाला । तयस्सिए = उनके आश्रित । चक्खुसे य = चाक्षुष और । अचक्खुसे = अचाक्षुष । विविहे य = और अनेक प्रकार के । तसे = त्रस | पाणे = प्राणियों की। हिंसइ उ = हिंसा करते हैं।
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