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[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-तम्हा = इसलिये । दुग्गइवड्ढणं = दुर्गति बढ़ाने वाले । एयं = इस । दोसं = दोष को। वियाणित्ता = जानकर । तेउकायसमारंभं = अग्निकाय के आरम्भ का साधु । जावज्जीवाए = जीवन भर के लिये । वज्जए = वर्जन कर दे।
भावार्थ-उपर्युक्त दोष को जानकर साधु जीवन पर्यन्त अग्निकाय के आरम्भ का वर्जन करते हैं। यह साधु का नौवाँ आचार स्थान है।
अणिलस्स समारंभं, बुद्धा मण्णंति' तारिसं।
सावज्जबहुलं चेयं, णेयं ताईहिं सेवियं ।।37।। हिन्दी पद्यानुवाद
वायुकाय का समारम्भ, प्रभु अग्निकाय जैसा कहते।
है पाप बहुल अतएव नहीं, वायी-मुनि यह सेवन करते ।। अन्वयार्थ-बुद्धा = तीर्थङ्कर देव । अणिलस्स समारंभं = वायुकाय के आरम्भ को । तारिसं = अग्निकाय के समान ही। मण्णंति = मानते हैं (अथवा भण्णंति' = बतलाते हैं)। एयं च = और वह वायुकाय । सावज्जबहुलं = पाप की बहुलता वाला है। ताईहिं = षट्काय के रक्षक मुनियों ने । एयं = इसलिये इसका आरम्भ । ण = नहीं। सेवियं = सेवन किया है।
भावार्थ-तीर्थङ्कर देव वायुकाय के आरम्भ को तेजस्काय के समान मानते हैं। (प्रचण्ड वायु के झोंके से भी हजारों-लाखों वृक्ष धराशायी हो जाते हैं । वायु अग्नि को भी प्रज्वलित करती है।) इसको पाप बहुल मानकर षट्काय के रक्षक मुनिजन फूंक अथवा पंखे आदि से वायु का संचालन नहीं करते । वायुकाय की रक्षा के लिये मुख पर भी मुँहपत्ती धारण करते हैं। इस प्रकार साधु वायुकाय का आरम्भ नहीं करते।
तालियंटेण पत्तेण, साहाविहुयणेण वा।
ण ते वीइउमिच्छंति, वेयावेऊण वा परं ।।38।। हिन्दी पद्यानुवाद
तालवृत्त या अन्य पत्र, तरु शाखा पंखा या बीजण।
वे करते नहीं हवा इनसे, पर से न कराते कभी 'श्रमण'।।। अन्वयार्थ-ते = वे निर्ग्रन्थ । तालियंटेण = तालवृत्त । पत्तेण = पत्ते से । वा = अथवा । साहाविहुयणेण = शाखा के हिलाने से । वीइउं = हवा करना । ण = नहीं। इच्छंति = चाहते । परं = दूसरे से । वेयावेऊण = हवा कराना भी । वा = नहीं चाहते।
1. भण्णंति - पाठान्तर।