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छठा अध्ययन] गिरे होते हैं, उनको दिन में देखकर बचाया जा सकता है, किन्तु रात में उन्हें कैसे बचा सकते हैं ? रात्रि में सूक्ष्म जीवों की रक्षा कर सकना सम्भव नहीं होता।
एयं च दोसं दठूणं, णायपुत्तेण भासियं ।
सव्वाहारं ण भुंजंति, णिग्गंथा राइभोयणं ।।26।। हिन्दी पद्यानुवाद
सूक्ष्म दृष्टि से इन दोषों को, देख वीर ने कहा वचन ।
निर्ग्रन्थ सकल अशनादि का, ना करते हैं निशि में भक्षण ।। अन्वयार्थ-णायपुत्तेण = ज्ञात पुत्र श्री महावीर द्वारा । भासियं = कथित । एयं = इस । दोसं = दोष को । दळूण = देखकर । णिग्गंथा = निर्ग्रन्थ मुनि । राइभोयणं = रात्रि भोजन में । सव्वाहारं = अशन आदि कोई आहार । ण = नहीं। भुंजंति = सेवन करते हैं।
__ भावार्थ-जिनेश्वर भगवान महावीर ने रात्रि-भोजन में छोटे-बड़े जीवों की हिंसा का दोष कहा है। इस बात को ध्यान में लेकर निर्ग्रन्थ छठे व्रत में किसी भी प्रकार का आहार, जो खाया अथवा पिया जाय, रात्रि को नहीं करते हैं। खाने की तो बात ही क्या, व्रती साधु रात में कभी दिन में खाये हुए पदार्थ का गुचलका भी आ जाय, तो उसे भी पीछा निगलना दोष रूप मानता है।
पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा।
तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।।27।। हिन्दी पद्यानुवाद
हिंसा न करे पृथ्वीकायिक की, तन, मन एवं निज वचनों से।
सम्यक् समाधि वाले संयत, त्रिकरण तथा त्रियोगों से ।। अन्वयार्थ-सुसमाहिया = समाधि भाव वाला । संजया = संयमी साधु । पुढविकायं = पृथ्वीकाय की। न हिंसंति = हिंसा नहीं करते। मणसा = मन । वयसा = वचन और । कायसा = काया से। तिविहेण करण जोएण (जोएणं) = तीन करण एवं तीन योग से।
भावार्थ-सातवें स्थान में सुसमाधिस्थ साधु के लिये पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का सर्वथा निषेध बतलाया है।शस्त्र परिणत अचित्त पृथ्वी काय के अतिरिक्त सूक्ष्म-बादर आदि सब पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का साधु कृत-कारित-अनुमोदन रूप तीन करण और तीन योग अर्थात् मन, वाणी और काया से वर्जन करते हैं।