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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
आचार्य श्रमण गण को वैसे, मुनिजन करते हैं आराधन।
करते गृहस्थ उसकी पूजा, जिनने पहचाना वैसे जन ।। अन्वयार्थ-तारिसो = वैसा भिक्षु । आयरिए या वि = आचार्य गुरु और । समणे = साधुओं की। आराहेइ = विनय आदि से सेवा करता है। गिहत्था वि = गृहस्थ भी। णं = उसकी । पूयंति = प्रशंसा करते हैं । जेण = इसलिये कि वे । तारिसं = विनयादि गुणों को । जाणंति = जानते हैं।
भावार्थ-वैसा भिक्षु आचार्य और साधु मण्डल की सेवा करता है, इसलिये गृहस्थ भी गुणवान जानकर उसकी प्रशंसा करते हैं।
तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे णरे ।
आयारभावतेणे य, कुव्वइ देवकिव्विसं ।।46।। हिन्दी पद्यानुवाद
तप, वचन और जो रूप चोर, आचार, भाव तस्कर जग में।
किल्विष बनकर पैदा होता, निजकृत कर्मों से सुरभव में ।। अन्वयार्थ-जे = जो । णरे = नर-साधु । तवतेणे = तपस्तेन (चोर) । वयतेणे = व्रत या वचन का चोर । रूवतेणे = रूपस्तेन । य = और । आयार-भावतेणे य = और आचार और भाव का चोर (स्तेन) होता है। देवकिव्विसं = किल्विष देव का । कुव्वइ = आयु बन्ध करता है। भावार्थ-जो साधु तप और व्रत रूप आचरण से जी चुराता है, वह किल्विष देवों में उत्पन्न होता है।
लक्षूण वि देवत्तं, उववण्णो देवकिव्विसे ।
तत्था वि से ण याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं ।।47।। हिन्दी पद्यानुवाद
पाकर भी देवत्व साधु, किल्विष भव में पैदा होकर ।
वह वहाँ पहुँचकर भी, ना जाने, मिला सुफल किस करनी पर ।। अन्वयार्थ-देवत्तं = देव भव । लळूण (लधुण) वि = प्राप्त करके भी। देवकिव्विसे = किल्विषी देवों में । उववण्णो = उत्पन्न होता है। तत्थ वि = वहाँ पर भी । से = वह । ण याणाइ = यह नहीं जान पाता कि । मे = मैंने । किं = क्या । किच्चा = करके । इमं = यह देवगति रूप । फलं = फल पाया है।