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[दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-महावीर प्रभु के वचनों में श्रद्धा रखने वाले मुनि सब प्रकार का अचित्त लवण, तेल, घी और गुड़ आदि पदार्थों को रात्रि में पास रखने की इच्छा भी नहीं करते।
लोहस्सेस अणुप्फासे, मण्णे अण्णयरामवि।
जे सिया संणिहिकामे, गिही पव्वइए ण से।।19।। हिन्दी पद्यानुवाद
है यह लोभ प्रभाव कदाचित्, कोई कुछ सन्निधि चाहे।
इससे गृहस्थ वह बन जाता, प्रव्रजित रूप ना शोभाये ।। अन्वयार्थ-एस = खाद्य वस्तुओं को रात में रखना । लोहस्स = लोभ का । अणुप्फासे = एक प्रभाव है। मण्णे = तीर्थंकर मानते हैं कि। अण्णयरामवि = थोड़ी सी भी। जे = जो। सिया = कदाचित् । संणिहिकामे = संग्रह की इच्छा करता है। से = वह आचार में। गिही = गृहस्थ है। पव्वइए = साधु । ण = नहीं है।
भावार्थ-ब्रह्मचर्य और असंग्रह साधु के मुख्य व्रत हैं । जो साधु रात में घी, तेल, गुड़ आदि पास में रखता है, वह लोभ का प्रभाव है। इसलिए प्रभु ने कहा कि जो थोड़ा भी खाद्य आदि पदार्थ का रात को संग्रह करने की इच्छा करता है, वह आचार में गृहस्थ है, साधु नहीं।
जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं ।
तं पि संजम-लज्जट्ठा, धारंति परिहरंति य ।।20।। हिन्दी पद्यानुवाद
मुनि, वस्त्र पात्र अथवा कम्बल, या रजोहरण करते धारण।
वे भी संयम लज्जा हित में, करते प्रयोग अथवा धारण ।। अन्वयार्थ-जं पि = जो भी । वत्थं = वस्त्र । व = और । पायं = पात्र । वा = अथवा । कंबलं = कम्बल । पायपुंछणं = रजोहरण रखते हैं। तं पि = वह भी। संजम लज्जट्ठा = संयम की रक्षा और लज्जा के लिये। धारंति = रखते हैं। य परिहरंति = और पहनते एवं उपयोग में लेते हैं।
भावार्थ-साधु के पास वस्त्र, पात्र, शास्त्र आदि देखकर शंका हो सकती है कि फिर ये वस्त्रादि क्यों रखते हैं ? उत्तर में शास्त्र कहता है-साधु जो वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरणादि संयम-धर्म की रक्षा करने के लिये रखते हैं और उपयोग में लाते हैं, उनको संग्रह करने की इच्छा से नहीं रखते।
ण सो परिग्गहो वुत्तो, णायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ।।21।।