________________
पाँचवाँ अध्ययन
[139 भावार्थ-जो मादक द्रव्य और प्रमाद से बचकर प्रणीत रस का वर्जन करते हुए तपस्या करता है, वह साधु दर्प रहित निर्दोष तप वाला है।
तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइयं ।
विउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे ।।43।। हिन्दी पद्यानुवाद
पूजित अनेक साधुजन से, देखो उसका कल्याण यहाँ ।
विपुलार्थ युक्त वर्णन उसका, सब सुनलो मुझसे आज यहाँ ।। अन्वयार्थ-तस्स = उस शुद्धाचारी के । अणेगसाहुपूइयं = अनेक साधुओं से प्रशंसित । कल्लाणं = कल्याण को । पस्सह = देखो । अत्थसंजुत्तं = मोक्ष रूप अर्थ से युक्त साधना के । विउलं = विशाल मार्ग का । कित्तइस्सं = कीर्तन करूँगा। मे = तुम मेरे से । सुणेह = श्रवण करो।
भावार्थ-उस शुद्धाचारी के कल्याण को देखो जो अनेक साधुओं से प्रशंसित है, निरुपम सुख रूप मोक्ष के पुरुषार्थ से युक्त उस विशाल मार्ग का मैं कीर्तन करूँगा, वह मेरे से श्रवण करो।
एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जए।
तारिसो मरणंते वि, आराहे इ संवरं ।।44।। हिन्दी पद्यानुवाद
इस प्रकार गुण का द्रष्टा, और दोषों का जो त्यागी है।
वैसा मरणकाल में भी मुनि, संवर आराधन भागी है।। अन्वयार्थ-एवं तु = इस प्रकार । गुणप्पेही = गुणप्रेक्षी (गुणों का धारक)। च = और । अगुणाणं = दुर्गुणों का । विवज्जए = वर्जन करने वाला । तारिसो = वैसा भिक्षु । मरणंते वि = मरणांत समय में भी । संवरं = संवर धर्म की । आराहेइ = आराधना करता है।
भावार्थ-दुर्गुणों का वर्जन करने वाला गुण ग्राहक भिक्षु अन्त समय में संवर धर्म की आराधना कर लेता है।
आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ।।45।।