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पाँचवाँ अध्ययन
[141 भावार्थ-तपस्तेन आदि रूप से मायाचार करने वाला वह चोर साधु होकर भी किल्विषी देव के रूप में उत्पन्न होता है, वहाँ उसको यह ज्ञान नहीं होता कि मैं क्या करके किल्विषी देव रूप में उत्पन्न हुआ हूँ।
तत्तो वि से चइत्ताणं, लब्भइ एलमूयगं ।
णरगं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ।।48।। हिन्दी पद्यानुवाद
किल्विष भव से भी चवकर वह, अजवत् गूंगा बन जायेगा।
है बोधि जहाँ दुलर्भ वैसा, नारक तिर्यक् भव पाएगा।। अन्वयार्थ-तत्तो वि = वहाँ से भी। चइत्ताणं = च्युत होकर । से = वह । एलमूयगं = बकरे के समान (मम्मण बोलने वाला) भव । लब्भइ = प्राप्त करेगा । वा = अथवा । णरगं = नरक । तिरिक्खजोणिं = तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त है । जत्थ = जहाँ पर । बोही = उसको धर्म की प्राप्ति । सुदुल्लहा = अति दुर्लभ होती है।
भावार्थ-वह मायाचारी साधु किल्विषी देव के भव से निकलकर, बकरे के समान एल-मूक योनि में जाता है अथवा नरक तिर्यञ्च योनि को पाता है, जहाँ उसको सम्यक्त्व-धर्म की प्राप्ति अति दुर्लभ होती है।
एयं च दोसं दट्टण, णायपुत्तेण भासियं ।
अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए।।49।। हिन्दी पद्यानुवाद
उपर्युक्त दोष को देख यहाँ, जो ज्ञात-पुत्र ने कहा यही।
अणुभर भी माया मिथ्या का, सेवन मुनि जन करे नहीं।। अन्वयार्थ-णायपुत्तेण = ज्ञातपुत्र-महावीर द्वारा । भासियं = भाषित । एयं = इस प्रकार के। दोसं = दोष को । दट्टण = देखकर । च मेहावी = और बुद्धिमान साधु । अणुमायं पि = अल्प मात्र भी। मायामोसं = कपट सहित मृषा । विवज्जए = नहीं बोले।
भावार्थ-ज्ञात पुत्र महावीर द्वारा कथित इस प्रकार के दोष को देखकर मेधावी साधु अल्पमात्र भी कपट युक्त मृषा नहीं बोले।
सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे। तत्थ भिक्खू सुप्पणिहिइंदिए, तिव्वलज्जगुणवं विहरिज्जासि ।।
त्ति बेमि ।।50।।