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पाँचवाँ अध्ययन]
सिया एगइओ लथु, विविहं पाणभोयणं ।
भद्दगं भद्दगं भोच्चा, विवण्णं विरसमाहरे ।।33।। हिन्दी पद्यानुवाद
एकाकी कर प्राप्त अगर, इस जग में विविध पान-भोजन।
खाकर अच्छा-अच्छा संग में, लाये अरस विरस भोजन ।। अन्वयार्थ-एगइओ = भिक्षा में गया हुआ एकाकी मुनि । सिया = कदाचित् । विविहं = अनेक प्रकार के। पाणभोयणं = सरस आहार-पानी। लधु = पाकर । भद्दगं-भद्दगं = अच्छा-अच्छा। भोच्चा = एकान्त में खाकर । विवण्णं = वर्ण रहित । विरसं = नीरस आहार । आहरे = उपाश्रय में लावे ।
भावार्थ-भिक्षा में गया हुआ अकेला मुनि कभी अनेक प्रकार का सरस भोजन पाकर अच्छाअच्छा एकान्त में खा ले और नीरस आहार लेकर उपाश्रय में आवे।
जाणंतु ता इमे समणा, आययट्ठी अयं मुणी।
संतुट्ठो सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ ।।34।। हिन्दी पद्यानुवाद
जानें इतने ये साधु मुझे, है आत्मार्थी यह अहो ! श्रमण ।
वासी-सेवी लब्धाहारी, सन्तुष्ट अरस करके भोजन ।। अन्वयार्थ-ता = वह मार्ग में खाने वाला साधु सोचता है । इमे = ये । समणा = श्रमण । जाणंतु = जानें कि । अयं = यह । मुणी = मुनि । आययट्ठी = आत्मार्थी है । पंतं = नीरस आहार को । संतुट्ठो = सन्तोषपूर्वक । सेवए = खाता है । लूहवित्ती = स्वादिष्ट भोजन की आकांक्षा नहीं करने से । सुतोसओ = सहज जैसा आहार मिले उसी में तुष्ट होने वाला है।
भावार्थ-मार्ग में खाने वाला माया (कपट) वश सोचता है कि नीरस आहार देखकर गण के अन्य साधु सोचेंगे कि यह मुनि बड़ा आत्मार्थी है। जो प्राप्त आहार को सन्तोष पूर्वक खाता है और सुस्वादु भोजन की आकांक्षा नहीं करने से सहज तुष्ट होने वाला है।
पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए। बहु पसवई पावं, मायासल्लं च कुव्वइ ।।35।।