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[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-जे = जो । ण वंदे = वन्दना नहीं करे । से = उस पर । ण कुप्पे = क्रोध नहीं करे । वंदिओ= मान-सम्मान पाकर । ण समुक्कसे = मान नहीं करे । एवं= इस प्रकार । अण्णेसमाणस्स = अन्वेषण करने वाले का । सामण्णं = श्रमण धर्म । अणुचिट्ठइ = निराबाध निर्मल रहता है।
भावार्थ-जो मुनि वन्दन नहीं करने पर क्रोध नहीं करता और मान-सम्मान पाकर गर्व नहीं करता, इस प्रकार अन्वेषण करने वाले का श्रमण धर्म बिना बाधा के अखण्ड टिका रहता है।
सिया एगइओ लर्बु, लोभेण विणिगूहइ।
मा मेयं दाइयं संतं, दट्टणं सयमायए ।।31।। हिन्दी पद्यानुवाद
अगर अकेला प्राप्त अशन, ले छिपा लोभ से कहीं श्रमण ।
दिखलाने पर सोचे यों, वे कर सकते हैं इसे ग्रहण ।। अन्वयार्थ-सिया = कदाचित् । एगइओ = भिक्षा को गया हुआ अकेला साधु । लधु = मनोज्ञ भोजन पाकर । लोभेण = खाने के लोभ से । विणिगूहइ = आहार को छिपाता है। मा = यदि । मेयं = इस आहार को । दाइयं संतं = दिखाया तो वे बड़े मुनि । दट्ठणं = देखकर । सयमायए = स्वयं ले लेंगे, मुझे नहीं देंगे।
भावार्थ-भिक्षार्थ गया हुआ एकाकी साधु अच्छा भोजन पाकर खाने के लोभ से उसे साधारण आहार से छिपाता है। सोचता है कि अच्छा भोजन देखकर वे स्वयं ले लेंगे, मुझे कदाचित् नहीं देवें।
अत्तट्ठागुरुओ लुद्धो, बहुं पावं पकुव्वइ ।
दुत्तोसओ य से होइ, णिव्वाणं च न गच्छइ ।।32।। हिन्दी पद्यानुवाद
स्वार्थी एवं जिह्वा लोलुप, बहु पाप साधु वह करता है।
जाता नहीं निर्वाण कभी, सन्तोष रहित जो रहता है।। अन्वयार्थ-अत्तट्ठागुरुओ = अपने उदर-भरण को प्रमुखता देने वाला । लुद्धो = लालची (लुब्ध) साधु । बहुं = बहुत । पावं = पाप का । पकुव्वइ = संचय करता है। य = और । दुत्तोसओ से होइ = वह कठिनाई से तुष्ट होता है। च = और । णिव्वाणं = निर्वाण को । न गच्छइ = प्राप्त नहीं करता।
भावार्थ-उदर-भरण को प्रमुखता देने वाला, वह लुब्ध साधु बहुत पाप का संचय करता है और वह असन्तोषी निर्वाण को प्राप्त नहीं करता है।