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पाँचवाँ अध्ययन]
[133 सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए ।
अदितस्स ण कुप्पिज्जा, पच्चक्खे वि य दीसओ।।28।। हिन्दी पद्यानुवाद
शय्यासन, पट अशन-पान, प्रत्यक्ष दिखाई देने पर।
ना दे तो भी कुपित न होवे, कभी संयमी उस जन पर ।। अन्वयार्थ-संजए = संयमी साधु । सयणासणवत्थं = शय्या, आसन, बाजोट (चौकी) और वस्त्र । वा = अथवा । भत्तं पाणं = आहार-पानी । पच्चक्खे = प्रत्यक्ष (सामने)। दीसओ = दिखते हुए। वि य = भी। अदितस्स = गृहस्थ नहीं देवे तो । ण कुप्पिज्जा = उस पर क्रोध नहीं करे।
भावार्थ-आहार की तरह अन्य पदार्थ, शय्या, आसन, वस्त्र, पात्र और आहारादि प्रत्यक्ष सामने दिख रहे हैं, फिर भी गृहस्थ यदि नहीं दे तो उस पर क्रोध नहीं करे।
इत्थियं पुरिसं वा वि, डहरं वा महल्लगं ।
वंदमाणं ण जाइज्जा, णो य णं फरुसं वए।।29।। हिन्दी पद्यानुवाद
नर नारी हो या शिशु छोटा, अथवा बुड्ढा या परम तरुण ।
न करे याचना वंदन-क्षण, अथवा न कहे कुछ फरुष वचन ।। अन्वयार्थ-इत्थियं = स्त्री। पुरिसं = पुरुष । वा वि = अथवा । डहरं = बालक । वा = या। महल्लगं = वृद्ध । वंदमाणं = जो वन्दना कर रहे हों उस समय उनसे । ण जाइज्जा = याचना नहीं करे । य णं = और (वन्दना नहीं करने पर अथवा न देने पर) उनको । फरुसं णो वए = कठोर वचन नहीं बोले ।
भावार्थ-भिक्षा में गये हुए साधु को स्त्री, पुरुष, बालक अथवा वृद्ध वन्दना करते हों, उनसे बीच में याचना नहीं करे और भिक्षा न मिलने की स्थिति में उनको रुक्ष वचन भी नहीं बोले ।
जे ण वंदे ण से कुप्पे, वंदिओ ण समुक्कसे।
एवमण्णे समाणस्स, सामण्णमणुचिट्ठइ ।।30।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो नहीं वन्दे क्रोध करे ना. वंदित हो नहीं गर्व धरे। साधुत्व सुदृढ़ बन जाता है, यों जिन शासन की आन धरे।।