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[दशवैकालिक सूत्र
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में आकर । भुत्तु = खाना । इच्छिज्जा = चाहे तो । सपिंडपायं = आहार और पात्र सहित । आगम्म = शय्या में आकर | उंडुअं = स्थान की । पडिलेहिया = प्रतिलेखना करे ।
भावार्थ-कदाचित् भिक्षु अपने वास स्थान में आकर ही खाना चाहे तो भिक्षा पात्र को लेकर आवे और विनय पूर्वक स्थान का प्रतिलेखन कर पात्र धरे ।
हिन्दी पद्यानुवाद
विणणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी । इरियावहियमायाय, आगओ य पडिक्कमे ।। 88 ।।
विनय सहित भीतर आकर, गुरु के समीप आकर बोले । इरियावहिया का पाठ करे, फिर मार्ग शुद्धि मन में तोले ।। अन्वयार्थ - विणण विनय के साथ। पविसित्ता = प्रवेश करके । गुरुणो = गुरुदेव के । सगासे = समीप में। आगओ = आकर। मुणी मुनि । इरियावहियं = ईर्यापथ की। आयाय = आलोचना करके । य पडिक्कमे = प्रतिक्रमण करे ।
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भावार्थ-गुरुदेव के समीप ईर्यावहिया के पाठ से आलोचना-प्रतिक्रमण करे अर्थात् भिक्षाकाल में दोषों की शुद्धि करे । उसकी विधि इस प्रकार है
हिन्दी पद्यानुवाद
आभोइत्ताण नीसेसं, अइयारं जहक्कमं । गमणागमणे चेव, भत्तपाणे य संजए । 189 ||
संयत-मुनि आने जाने, और अशन-पान को लेने में । हो शुद्ध लगे अतिचारों से, क्रम से कर उनका चिन्तन मन में ।।
अन्वयार्थ-संजए = संयमी साधु । गमणागमणे = गमनागमन । चेव = और। भत्तपाणे य = आहार- पानी ग्रहण करने में, जो भी दोष लगे हों । नीसेसं = उन सब । अड्यारं = अतिचार दोषों का । जहक्कमं ' = यथाक्रम से । आभोइत्ताण = चिन्तन करे ।
भावार्थ-भिक्षा से आकर मुनि गुरु के पास जब आलोचना करता है तो आहार-पानी के ग्रहण करने और आने-जाने में जो भी कोई दोष लगा हो तो उसका उपयोग पूर्वक चिन्तन करके सबको प्रकट करे ।
उज्जुप्पण्णो अणुव्विग्गो, अवक्खित्तेण चेयसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं भवे ।।90।।