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[दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-गोयरग्गगओ = गोचराग्र में गया हुआ साधु । सिया य = कदाचित् । परिभोत्तुअं = आहार करना । इच्छिज्जा = चाहे तो। फासुयं = प्रासुक जीव रहित । कुट्ठगं = कोठा। वा = या। भित्तिमूलं = दीवाल की आड़ में स्थान की। पडिलेहित्ताण = प्रतिलेखना करके।
भावार्थ-गोचरी में गया हुआ साधु कदाचित् वहाँ कारणवश खाना चाहे तो प्रासुक कोठा या दीवार की आड़ में जीव रहित स्थान देखकर
अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवुडे ।
हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुंजिज्ज संजए ।।83।। हिन्दी पद्यानुवाद
मेधावी मुनि तृण-आवृत्त, और चारों ओर घिरे घर में।
निज कर का करके परिमार्जन, फिर लग जाये भोजन में ।। अन्वयार्थ-मेहावी = बुद्धिमान् । संजए = साधु । अणुन्नवित्तु = गृहपति की अनुमति लेकर । पडिच्छन्नम्मि = ऊपर से छाया हुआ स्थान हो। हत्थगं = हाथ को। संपमज्जित्ता = अच्छी तरह पूँजकर । तत्थ = वहाँ । संवुडे = यतना से । भुंजिज्ज = आहार करे।
भावार्थ-गृहपति की अनुमति प्राप्त करके ऊपर से ढके एवं चारों ओर से घिरे घर में अपने हाथ का प्रमार्जन करके फिर भोजन करे
तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्ठियं कंटओ सिया।
तणकट्ठसक्करं वा वि, अण्णं वा वि तहाविहं ।।84।। हिन्दी पद्यानुवाद
वैसे घर में खाते मुनि के, यदि कंटक बीज तथा तिनका।
मुख में आ जाये काष्ठ खण्ड, कंकर वा टुकड़ा सीसे का ।। अन्वयार्थ-तत्थ = वहाँ । भुंजमाणस्स = आहार करते हुए । से = उस साधु के पात्र में । सिया = कदाचित् । अट्ठियं = गुठली। कंटओ = काँटा । वा वि = या। तणकट्ठसक्करं = तृण, काष्ठ तथा शर्करा कंकरी । वा वि = अथवा । तहाविहं = उसके समान । अण्णं = अन्य कोई वस्तु निकल आवे।
भावार्थ-गोचरी हेतु गया साधु कभी कारणवशात् गृहस्थ के कमरे में आहार करे, और उसके मुँह में गुठली, काँटा, तृण, काष्ठ अथवा बालू का कण आदि इसी प्रकार का कोई अन्य पदार्थ निकल आवे।