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पाँचवाँ अध्ययन]
[127 सकती है। कभी लोग यह सोचे कि श्रमणों को भोजन नहीं मिलता है, जिनशासन की ऐसी लघुता प्रकट होने की सम्भावना रहती है। इसलिये साधु उनको लाँघकर नहीं जावे।
पडिसेहिए व दिण्णे वा, तओ तम्मि णियत्तिए।
उवसंकमिज्ज भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए ।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद
दाता से वर्जित या भिक्षा पाकर, याचक के जाने पर।
अशन-पान हित जाये संयत, फिर उस दाता के घर पर ।। अन्वयार्थ-पडिसेहिए = दाता द्वारा निषेध करने पर । व = या। दिण्णे = भिक्षा दे देने पर । तम्मि वा = या उस याचक आदि के । तओ = वहाँ से । णियत्तिए = हट जाने पर । संजए = साधु । भत्तट्ठा व = आहार के लिये अथवा । पाणट्ठाए = पानी के लिए । उवसंकमिज्ज = प्रवेश करे।
भावार्थ-दाता द्वारा याचक को निषेध करने पर या भिक्षा देने पर जब वह याचक चला जावे तब साधु आहार अथवा पानी के लिये उस घर में जावे।
उप्पलं पउमं वा वि, कुमुयं वा मगदंतियं ।
अण्णं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुंचिया दए ।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद
उत्पल पद्म कुमुद अथवा, मालती लता के फूलों का।
हो अन्य सचित्त जो ऐसे ही, लुंचन कर वैसे फूलों का ।। अन्वयार्थ-उप्पलं = उत्पल कमल । वा वि = अथवा। पउमं = पद्म-लाल कमल । वा= अथवा । कुमुयं = चन्द्र विकासी कमल और । मगदंतियं = मालती के फूल । वा = अथवा वैसे । अण्णं च = अन्य कोई । पुप्फसचित्तं तं = चित्त फूल हो उसको । संलुंचिया = छेदन करके । दए = दे।
भावार्थ-कोई गृहस्थ साधु को भिक्षा दे तो कमल, पद्म कमल अथवा चन्द्र विकासी कमल वा मालती के फल तथा वैसे किसी अन्य सचित्त फल को छेदन करके दे।
तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ।
दितियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पड़ तारिसं ।।15।। हिन्दी पद्यानुवाद
फिर दाता यदि भक्त-पान दे, तो अकल्प्य हो जाता है। भिक्षा दात्री को मुनि बोले, वैसा मुझे नहीं कल्पता है ।।