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पाँचवाँ अध्ययन]
[125 गोयरग्गपविट्ठो उ, ण णिसीइज्ज कत्थई।
कहं च न पबंधिज्जा, चिट्ठित्ताण व संजए ।।8।। हिन्दी पद्यानुवाद
भिक्षा लेने को गया साधु, बैठे न कहीं घर में जाकर ।
ना कहे किसी को धर्मकथा, परिजन में वहाँ खड़ा रहकर ।। अन्वयार्थ-गोयरग्गपविट्ठो य = और गोचरी के लिये गया हुआ। संजए = साधु । कत्थई = कहीं पर । ण णिसीइज्ज = बैठे नहीं । च = और । चिट्ठित्ताण व = खड़ा रहकर भी । कहं = कथा वार्ता का । न पबंधिज्जा = विस्तार नहीं कहे।
भावार्थ-साधु गोचरी के लिये जाकर कहीं बैठे नहीं और खड़े रहकर भी धर्म-कथा का विस्तार नहीं करे, बात नहीं करे।
अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वा वि संजए।
अवलंबिया ण चिट्ठिज्जा, गोयरग्गगओ मुणी ।।७।। हिन्दी पद्यानुवाद
भिक्षा लेने को गया साधु, आगल व फलक तथा साँकल।
ले अवलम्ब द्वार आदिक का, खड़ा रहे न कहीं क्षण पल ।। अन्वयार्थ-गोयरग्गगओ = गोचरी में गया हुआ । मुणी = साधु । अग्गलं = अर्गला । फलिहं = परिघा यानी द्वार के पीछे देने की लकड़ी। दारं = द्वार । कवाडं = कपाट को । वा वि = अथवा । अवलंबिया = दीवार आदि का अवलम्बन लेकर । संजए = संयमी साधु । ण चिट्रिज्जा = खड़ा नहीं रहे।
भावार्थ-गोचरी के लिये गया हुआ साधु, अर्गला, परिघा, (द्वार के पीछे देने का काष्ठ) द्वार एवं कपाट को पकड़कर संयमवान् मुनि खड़ा नहीं रहे । ऐसा करने से लकड़ी के गिरने की सम्भावना से जीव-जन्तु की विराधना का भय रहता है। अत: विवेकी साधु दीवार आदि को बिना पकड़े यत्न से खड़ा रहे।
समणं माहणं वा वि, किविणं वा वणीमगं ।
उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद
ब्राह्मण श्रमण दीन भिक्षुक, और कृपण पूर्व से हों जिस घर । उल्लंघन कर उन्हें न मुनिवर, अशन हेतु जाये उस घर ।।