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पाँचवाँ अध्ययन]
[113 तं च होज्ज अकामेणं, विमणेण पडिच्छियं ।
तं अप्पणा ण पिवे, णो वि अण्णस्स दावए ।।80।। हिन्दी पद्यानुवाद
इच्छा बिना बेमन से वैसा, लिया गया हो यदि धोवन ।
ना पीए, दे नहीं अन्य को, साथ लिए जाये धोवन ।। अन्वयार्थ-तं च = और वह कदाचित् । अकामेणं = बिना इच्छा के। विमणेण = असावधानी से । पडिच्छियं = लेने में आ गया। होज्ज = हो तो। तं = वह जल । अप्पणा = स्वयं । ण पिवे = नहीं पीवें । अण्णस्स = अन्य को। वि = भी। णो = नहीं। दावए = देवें।
भावार्थ-यदि यह पानी इच्छा के बिना असावधानी से ले लिया गया हो तो मुनि उसे न स्वयं पीए और न दूसरों को पिलावे, क्योंकि उस अरुचिकर दुर्गन्धित जल को पीने से पीने वाले को वमन आदि असमाधि हो सकती है।
एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया।
जयं परिदृविज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ।।81।। हिन्दी पद्यानुवाद
जाकर एकान्त जगह में मुनि, प्रतिलेखन करे अचित्त भू का।
परठे यतना से उस धोवन को, फिर करे पाठ ईर्यापथ का।। अन्वयार्थ-एगंतं = मुनि एकान्त स्थल में । अवक्कमित्ता = जाकर । अचित्तं = अचित्त भूमि की। पडिलेहिया = प्रतिलेखना कर, उस जल को। जयं = यतनापूर्वक । परिट्ठविज्जा = परठ दे। परिट्ठप्प = और परठ कर । पडिक्कमे = प्रतिक्रमण करे।
___ भावार्थ-मुनि उस दुर्गन्धित जल को लेकर एकान्त स्थान में जावे और अचित्त भूमि को पूँजकर वहाँ उस धोवन को परठ दे। बाद में ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करे।
सिया य गोयरग्गगओ, इच्छिज्जा परिभोत्तुअं।
कुट्टगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहित्ताण फासुयं ।।82।। हिन्दी पद्यानुवाद
यदि भिक्षा हेतु गया साधु, भोजन की मन में चाह करे। प्रासुक कोठा भित्ति मूल, को देख प्रथम तब पात्र धरे ।।