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[दशवैकालिक सूत्र
भावार्थ-यह पानी अजीव पदार्थ में परिणत हो गया है, ऐसा जानकर साधु उसे ग्रहण करे । फिर भी यदि यह उपयोग में आ सकेगा या नहीं ऐसी शंका रहे तो थोड़ा सा चखकर मालूम कर ले । अचित्त होने पर भी यदि उसे पी सके तो मुनि को गृहस्थ के वहीं इसको लेने न लेने का निर्णय कर लेना चाहिये ।
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हिन्दी पद्यानुवाद
थोवमासायणट्ठाए, हत्थगम्मि दलाहि मे । मा मे अचंबिलं पूयं, नालं तण्हं विणित्तए । 178 ।।
थोड़ा सा हाथों में देना, आस्वादन के हित प्रासुक जल । यह खट्टा दुर्गन्धित जल, क्या मिटा सकेगा मम प्यास प्रबल ।।
अन्वयार्थ-थोवं = थोड़ा सा जल । आसायणट्ठाए = चखने के लिये। मे = मेरे | हत्थगम्मि = हाथ में । दलाहि = दो । अच्चंबिलं = अधिक खट्टा और । पूयं = दुर्गन्धित जल (हो तो स्पष्ट कह दे कि ऐसा जल ) । मा मे = मुझे नहीं चाहिये । तण्हं = (क्योंकि) ऐसा जल प्यास को । विणित्तए = मिटाने में । नालं = पर्याप्त नहीं है ।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ- वह धोवन अगर दुर्गन्धित लगता हो, पीने जैसा नहीं लगता हो, तो साधु दाता से कहे कि मुझे चखने के लिए इसमें से थोड़ा-सा जल मेरे हाथ में दो । अधिक खट्टा और दुर्गन्धित लगे तो साधु दाता से कहे कि ऐसा जल मुझे नहीं चाहिये, क्योंकि यह प्यास मिटाने में समर्थ नहीं है ।
तं च अच्चंबिलं पूयं, नालं तिण्हं विणित्तए । दिंतियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पड़ तारिसं । 179 ।।
उस अति खट्टे दुर्गन्धित जल को, जिससे मिट सकती प्यास नहीं । मुनि धोवन दात्री से बोले, यह मम हित लेना उचित नहीं ।।
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अन्वयार्थ-तं = वह । अच्चंबिलं = अधिक खट्टा । च = और । पूयं = दुर्गन्धित जल । तिन्हं = प्यास। विणित्तए = मिटाने में। नालं = समर्थ नहीं है, अतः साधु । दिंतियं = देने वाली से। पडियाइक्खे = निषेध पूर्वक कहे कि । तारिसं = इस प्रकार का धोवन । मे = मुझे । ण कप्पड़ = नहीं कल्पता है ।
भावार्थ-देने वाली से भिक्षु स्पष्ट कह दे कि वह अतिखट्टा दुर्गन्धित जल प्यास मिटाने में समर्थ नहीं है । इसलिये वैसा जल मुझे नहीं कल्पता है I