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[दशवैकालिक सूत्र अगस्तिया, तेन्दूफल, बेल फल, इक्षु खण्ड अथवा सिंबली बल्ल धान्य की फली। उपर्युक्त सब शब्द वनस्पति वाचक हैं, मांस वाचक नहीं।
टिप्पणी-(1) यहाँ पर बहु अट्ठियं' और 'पुग्गलं' शब्दों से कुछ विद्वान् ‘अस्थि' और 'मांस' ऐसा अर्थ करते हैं। किन्तु अहिंसा प्रधान जैन संस्कृति को देखते हुए ऐसा अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता।
(2) अट्ठियं = गुठली, आप्टेकृत संस्कृत और इंगलिश शब्दकोष के अनुसार । जैनागम शब्दसंग्रह पृष्ठ 361
(3) बहु अट्ठियं = बहु बीजकमिति । अवचूरिका के अनुसार, जो विक्रम सम्वत् 1665 से पहले की बनी हुई है, में बहु अट्ठिय' शब्द का अर्थ बहु बीजकम् किया गया है।
(4) वेदिक ग्रन्थ 'निघण्टु' कोष में भी बहु बीजकं' शब्द का प्रयोग ‘सीताफल' के अर्थ में आया है। यथा-'सीताफलं गण्डमात्रं वैदेहीवल्लभं तथा कृष्णबीजं चाग्रिमाख्यमातृप्यं बहु बीजकं ।' इति ।
अप्पे सिया भोयणजाए, बहुउज्झियधम्मिए।
दितियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पइ तारिसं ।।74।। हिन्दी पद्यानुवाद
खाद्य-अंश इनमें थोड़ा है, और छोड़ने योग्य बहुल।
ऐसी नहीं कल्पती भिक्षा, दात्री को कह दे अविचल ।। अन्वयार्थ-भोयणजाए = खाने का भाग । अप्पे सिया = कम होता है। बहु उज्झियधम्मिए = अधिक भाग फैंकने लायक होता है, ऐसा आहार कोई देवे तो साधु । दितियं = देने वाली से । पडियाइक्खे = निषेध से कहे कि । तारिसं = वैसा आहार । मे = मुझे लेना। ण कप्पड़ = कल्पता नहीं हैं।
भावार्थ-उपर्युक्त फलों का पहले प्रलम्ब शब्द से निषेध हो जाता है, फिर भी इस गाथा में यह बताया गया है कि पकाये हुए भी ये फल फैंकने योग्य भाग अधिक होने से साधु नहीं ले ।
तहे वुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोयणं ।
संसेइमं चाउलोदगं, अहुणाधोयं विवज्जए।।75।। हिन्दी पद्यानुवाद
मेथी, केर असुन्दर सुन्दर, द्राक्षा और गुड़ घट पानी। भाजी थाली या चावल का, सद्य धोया नहीं ले पानी।।