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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
ऐसे महादोष को मन से, जान जगत के सब ऋषिगण।
माला पर से लाई भिक्षा, दोष जान ना करें ग्रहण ।। अन्वयार्थ-तम्हा = इसलिये । एयारिसे = इस प्रकार के । महादोसे = आत्म-विराधना और जीव-विराधना के बड़े दोष को । जाणिऊण = जानकर । संजया = संयमवान् । महेसिणो = महर्षि गण। मालोहडं = मालापहृत, ऊपर या नीचे के माले (मंजिल) से लाई हुई। भिक्खं = भिक्षा को । ण = नहीं। पडिगिण्हंति = ग्रहण करते हैं।
भावार्थ-इसलिये इस प्रकार स्व-पर विराधक महादोष को जानकर संयमवान् महर्षि ऊपर-नीचे या तिर्यक् स्थान से मालापहृत यानी मकान की ऊपर या नीचे की मंजिल या माले से लाई हुई उस भिक्षा को निर्दोष होने पर भी ग्रहण नहीं करते।
कंदं मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं च सन्निरं।
तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवज्जए।।70।। हिन्दी पद्यानुवाद
कन्द मूल या ताल आदि फल, काटी बथुआ की भाजी।
सचित्त तूंबे या अदरख हों, मुनि हित में वे हैं वर्ण्य सभी।। अन्वयार्थ-आमं = अपक्व । कंदं = कंद सूरण कंदादि । मूलं = मूल । वा = अथवा । पलंबं = प्रलम्ब फल । छिन्नं = कटे हुए। च = और । सन्निरं = पत्तों की भाजी । तुंबागं = तूम्बा घीया । च = और । आमगं = कच्चे अपक्व । सिंगबेरं = अदरख का । परिवज्जए = वर्जन करे।
भावार्थ-यहाँ पर वनस्पति काय की विराधना से बचने के लिये कंद मूल अथवा अपक्व प्रलम्ब फल और कटी हुई पत्ती की भाजी को तथा शस्त्र परिणत के अतिरिक्त तूम्बा, घीया और अदरक का ग्रहण वर्जित किया गया है। (फिर यहाँ ग्रहण का अभिप्राय अपक्व जमीकन्द के ग्रहण का सर्वथा निषेध करना हो सकता है।)
तहेव सत्तुचुण्णाई, कोलचुण्णाई आवणे ।
सक्कुलिं फाणिअंपूअं, अन्नं वा वि तहाविहं ।।71।। हिन्दी पद्यानुवाद
वैसे सत्तू बेर चूर्ण, तिल पपड़ी तथा मालपूए ।
गुड़ या अन्य पदार्थ दूसरे, रक्खे दुकान पर जो आए।। अन्वयार्थ-तहेव = कन्द आदि के समान । सत्तु चुण्णाई = सत्तू का चूर्ण । कोलचुण्णाई = बेर