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पाँचवाँ अध्ययन]
[115 तं उक्खिवित्तु ण णिक्खिवे, आसएण ण छड्डए।
हत्थेण तं गहेऊणं, एगंतमवक्कमे ।।85।। हिन्दी पद्यानुवाद
उसको निकालकर फेंके ना, यूँके ना कभी ऊँचे मुख से।
लेकर उसको अपने कर से, एकान्त स्थान जावे तन से ।। अन्वयार्थ-तं = उस तृण आदि को । उक्खिवित्तु = मुँह से निकाल कर । ण = नहीं। णिक्खिवे = गिरावे । आसएण = मुँह से भी। ण छड्डए = इधर-उधर नहीं थूके, किन्तु । हत्थेण = हाथ से । तं = उसको । गहेऊणं = ग्रहण कर । एगंतमवक्कमे = एकान्त स्थान में जावे।
भावार्थ-तब काष्ठ आदि को मुँह से निकाल कर इधर-उधर नहीं डाले । मुँह से दूर थूके नहीं, किन्तु हाथ में लेकर एकान्त स्थान में चला जावे।
एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिले हिया।
जयं परिट्ठविज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ।।86।। हिन्दी पद्यानुवाद
एकान्त अचित्त भूमि में जा, उनको फिर भली भाँति देखे।
यतना से उन्हें भूमि में दे, फिर से आ ईयापथिक करे ।। अन्वयार्थ-एगंतं = एकान्त में। अवक्कमित्ता = जाकर । अचित्तं = अचित्त स्थल का। पडिलेहिया = प्रतिलेखन करे । जयं = फिर यतना से। परिठ्ठविजा = परिस्थापना करे यानी परठ दे। परिट्ठप्प = और उसे परठकर । पडिक्कमे = प्रतिक्रमण करे।
भावार्थ-साधु एकान्त में जाकर अचित्त-निर्जीव स्थान की प्रतिलेखना करे। फिर वहाँ यतना से काष्ठ आदि को परठ दे, परठ कर (डालकर) कायोत्सर्ग द्वारा प्रतिक्रमण करे।
सिया य भिक्खू इच्छिज्जा, सिज्जमागम्म भुत्तुअं।
सपिंड पायमागम्म, उंडु अं पडिले हिया ।।87।। हिन्दी पद्यानुवाद
वासस्थान में आकर मुनि, खाने का मन में भाव करे।
भोजन की जगह देख लेवे, भिक्षा भाजन वह पास धरे ।। अन्वयार्थ-सिया य = और कदाचित् । भिक्खू = भिक्षु । सिज्जमागम्म = शय्या-निवास स्थान