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चतुर्थ अध्ययन]
होता चोरी से पृथक् और, निंदा गर्हा मैं करता हूँ । तृतीय महाव्रत चौर्य-विरति का, व्रत मैं धारण करता हूँ ।। करता भन्त मैं चौर्य - त्याग, उपरत इस कर्म से होता हूँ । अचौर्य महाव्रत-पालन में, अपने को अर्पण करता हूँ ।।
अन्वयार्थ-अहावरे तच्चे भंते ! महव्वए = हे भगवन् ! अब आगे तीसरे महाव्रत में । अदिन्नदाणाओ = अदत्तादान से| वेरमणं = निवृत्ति होती है । सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं = हे भगवन् ! सब प्रकार के अदत्तादान का । पच्चक्खामि = मैं प्रत्याख्यान करता हूँ। से गामे वा नगरे वा रण्णे वा = वह ग्राम में, नगर में या अरण्य में । अप्पं वा = थोड़ा हो या । बहुं वा = बहुत । अणुं वा = छोटी वस्तु हो या । लं = स्थूल हो । चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा = सचित्त हो या अचित्त ।
नेव सयं
स्वयं अदत्त ग्रहण करूँगा नहीं, दूसरों से अदत्त ग्रहण कराऊँगा नहीं, अदत्त ग्रहण करने वाले अन्य को अच्छा समझँगा नहीं ।
न समणुजाणामि ।
... न
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तस्स भंते!
वोसिरामि ।
हे भगवन् ! पूर्व गृहीत उस अदत्त ग्रहण का प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ और गुरुसाक्षी से उस की गर्हा करता हूँ । उस पापकारी आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ ।
तच्चे भंते ! महव्वए.
अदिन्नादाणाओ वेरमणं ।
हे भगवन् ! मैं तीसरे महाव्रत में सब प्रकार के अदत्तादान से निवृत्ति करने को उपस्थित हूँ ।
भावार्थ - तीसरा महाव्रत अदत्तादान विरमण है । अहिंसा और सत्य महाव्रत के पश्चात् अचौर्य महाव्रत आता है। जैन मुनि के व्रत में देश, काल और परिस्थिति की कोई छूट नहीं होती, अतः उनको महाव्रत कहा जाता है । महाव्रत 5 हैं। अहिंसा की पूर्णता के लिये जैसे सत्य आवश्यक है, वैसे ही सत्य की परिपालना के लिये अचौर्य व्रत भी आवश्यक है। चोरी द्रव्य की तरह भावों की भी होती है। जैसे दशवैकालिक में कहा है
तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । आयारभाव तेणे य, कुव्वइ देव किव्विसं ।।
तप-स्तेन, व्रत-स्तेन, रूप- स्तेन और आचार - स्तेन ये चार भाव चोरी के भेद हैं । परन्तु यहाँ पर बाह्य वस्तु की चोरी यानी-अदत्तादान को ही मुख्यरूप से वर्जित किया है।