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चतुर्थ अध्ययन]
[55 डालकर बढ़ाने वाले को । घट्टंतं वा = T घर्षण करने वाले को । भिदंतं = भेदन करने वाले को । उज्जालंतं वा = जलाने वाले को । पज्जालंतं वा = तेज करने वाले को । निव्वावंतं वा = बुझाने वाले अन्य को । न जाणिज्जा = भला नहीं समझे। जावज्जीवाए = जीवन पर्यन्त ।
तिविहं तिविहेणं
. अप्पाणं वोसिरामि ।
तीन करण और तीन योग से, मन वचन काया से, अग्निकाय की हिंसा करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, करने वाले अन्य को भला समझँगा नहीं। पहले के अग्निकाय के आरम्भ का, हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षी से गर्हा करता हूँ। पापकारी आत्मा को पाप से अलग करता हूँ ।
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भावार्थ-संयत-विरत आदि गुण वाला भिक्षु षट्काय के जीवों की पूर्ण हिंसा का त्यागी होता है । इसलिए तेजस्काय की रक्षा के लिए वह प्रतिज्ञा करता है कि अग्नि 1, अंगारा 2, मुर्मुर 3, अर्चि ज्वाला 5, अलातक 6, शुद्ध अग्नि 7 और उल्का - ज्वाला रहित आग तथा पन्नवणा सूत्र में कहे गये विद्युत् आदि को बढ़ावे नहीं, घर्षण नहीं करे, भेदन नहीं करे, जलावे नहीं, प्रज्वलित करे नहीं, बुझावे नहीं, दूसरों से घर्षण, भेदन आदि कराना नहीं, करने वाले का अनुमोदन करना नहीं, जीवन पर्यन्त तीन करण, , तीन योग से तेजस्काय की विराधना जलाने-बुझाने आदि से स्वयं करूँगा नहीं, दूसरों से जलाने आदि की क्रिया कराऊँगा नहीं तथा करने वाले का अनुमोदन करूँगा नहीं । शरीरधारी को अपने तन और परिवार के रक्षण आदि प्रयोजन से तेजस्काय का उपयोग आवश्यक होता है, परन्तु जैन साधु अग्निकाय को जलाने, बुझाने आदि-क्रिया में असंख्य जीवों की प्रत्यक्ष हिंसा होती जानकर अग्नि काय के आरम्भ का जीवन भर के लिये सर्वथा त्याग करते हैं।
भयंकर से भयंकर अन्धकार में भी जैन साधु प्रकाश के किसी भी प्रकार के साधन का उपयोग नहीं करते, किन्तु रजोहरण से यतना करते हुए गमनागमन करते हैं।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय - पडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मे, दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, सेसिण वा विहुयणेण वा, तालियंटेण वा, पत्तेण वा, पत्तभंगेण वा, साहाए वा, साहाभंगेण वा, पिहुणेण वा, पिहुणहत्थेण वा, चेलेण वा, चेलकन्नेण वा, हत्थेण वा, मुहेण वा, अप्पण वा कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं, न फुमिज्जा, न वीएज्जा, अन्नं न फुमाविज्जा, न वीआविज्जा, अन्नं फुमंतं वा, वीअंतं वा, न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।।21।।